शब्द और चित्र एक ही धागे में पिरोने वाली कलाकार फ़ायज़ा हुमा

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शब्द और चित्र एक ही धागे में पिरोने वाली कलाकार फ़ायज़ा हुमा

छाया: स्व सम्प्रेषित 

सारिका ठाकुर

चित्रकला अभिव्यक्ति का ऐसा माध्यम है जिसे किसी ख़ास हद में नहीं बांधा जा सकता। अमूर्त चित्रकला या एब्सट्रेक्ट पेंटिंग उस कविता की तरह होती है जिसे जितनी बार पढ़ा जाता है, उतनी बार उसके अलग अर्थ सामने आते हैं - कुछ एक-दूसरे से जुड़े हुए तो कुछ बिलकुल ही अलग। इस तरह की कृतियों की शक्ल किसी प्रिज्म की तरह होती है।  

इसी अमूर्त चित्रकला की दुनिया में फ़ायज़ा हुमा एक गंभीर सा नाम है। वे अमूर्त चित्रांकन के बाद उसके अर्थ को समझाने के लिए लफ़्ज़ों का एक दरवाज़ा खोलती हैं, जिसके भीतर से कुछ नज़्म और कविताओं की आवाज़ आती है। दोनों के तार इस तरह जुड़े हुए हैं कि नज़्म का पीछा करते हुए आप उनके चित्रों तक पहुंचेंगे या चित्रों में गुम होने के बाद उनके नज्मों तक पहुँच जाएंगे। कुल मिलाकर देखने पढ़ने और सुनने वालों को यह रूहानी सफ़र का एहसास देती है।  

फ़ायज़ा हुमा का जन्म 3 अप्रैल 1976 को भोपाल में हुआ। उनके पिता मोहम्मद यूसुफ़ हुमा कवि और लेखक थे। पर्यावरण से जुड़े विषयों पर उन्होंने गहन शोध किया था, बदकिस्मती से उनका शोध प्रबंध प्रकाशित नहीं हो सका। उर्दू में लिखी उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं । फ़ायज़ा की माँ नाज़नीन हुमा गृहणी हैं। उन्हें पढ़ने का बहुत शौक था। घरेलू काम करते हुए कई किताबें यूं ही पढ़ जाया करती थीं, ये अलग बात है कि इस वज़ह से किताबों पर अक्सर तेल या मसालों के दाग रह जाते थे।  

पढ़ने-लिखने में रूचि रखने वाले और तालीम पसंद माता पिता की परवरिश की वजह से उनके पाँचों बच्चे अपनी-अपनी जगह उंचे मुकामों तक पहुंचे। चार बहन और एक भाई में सबसे छोटी फ़ायज़ा की शुरूआती पढ़ाई रमन हायर सेकेंडरी स्कूल से हुई फिर जवाहर लाल नेहरु स्कूल से कॉमर्स विषय लेकर उन्होंने हायर सेकंडरी किया।  

फ़ायज़ा को बचपन से ही रेखा चित्र बनाने का शौक था। चारकोल लेकर बड़ी बड़ी दीवारों पर चित्र उकेर दिया करती थीं। एक बार उन्होंने अपने घर के दरवाज़े पर कम्पास से एक लकीर  खींच दी, जिसे देखकर उनके पिता हैरान रह गए थे। न जाने उन्हें उस लकीर में क्या दिखा, वे कहने लगे कि “ यह लड़की तो कलाकार बनेगी।” वह लकीर कभी न मिटे इसके लिए उन्होंने ख़ास इंतजाम किये थे। जबकि किसी आम अभिभावक के लिए यह बच्ची की शरारत भर होती और दरवाज़े को कम्पास की नोक से गोद देने के जुर्म में, कम्पास को खराब कर देने की जुर्म में उसे सजा भी मिलती। लेकिन फ़ायज़ा के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ बल्कि उनके पिता उनमें अलग तरह की छिपी हुई प्रतिभा तलाशने लगे थे।

1994 में हायर सेकेंडरी करने के बाद फ़ायज़ा ने फाइन आर्ट लेकर शासकीय महारानी लक्ष्मी बाई कन्या स्नातकोत्तर स्वशासी महाविद्यालय में ग्रेजुएशन के लिए एडमिशन लिया। कॉलेज में कला की अकादमिक परिधि से उनका पहली बार परिचय हुआ। यह दिक्कत आज़ाद ख़याल कलाकार और अकादमिक नियमावली और परिभाषाओं की थी। भीतर की यह जद्दो-जहद एमए तक चलती रही। फ़ायज़ा का मानना है कि कला को कभी भी पाठ्यक्रमों की सरहद में नहीं जकड़ा जा सकता। वह तभी जीवंत होती है जब उसे सांस लेने के लिए खुला आसमान मिले।  

फ़ायज़ा के पिता मजदूर युनियन के भी सदस्य थे और किसी मुद्दे पर उन्होंने कंपनी के ख़िलाफ़ मुकदमा दायर कर दिया था। लेबर कोर्ट भोपाल में उन्होंने अपने बलबूते पर जीत हासिल की। फिर मामला हाईकोर्ट भेज दिया गया। उन्हें पूरी उम्मीद थी कि हाईकोर्ट से भी उन्हें जीत ही हासिल होगी लेकिन ऐसा हो न सका। वर्ष 2000 में वकील ने उन्हें पेशी पर जबलपुर बुलाया और जो कुछ बताया उसे सुनने के बाद उनके पैरों के नीचे की जमीन खिसक गयी। उन्हें पता चला कि मामले का रुख पूरी तरह मोड़ दिया गया है, उनके पक्ष की वकील ही उनसे कहने लगीं कि केस में दम नहीं है। वे इस सदमे को झेल नहीं पाए और वहीं फ़ायज़ा की अम्मी के कंधे पर सर रखे महज़ 60 साल की उम्र में इस फानी दुनिया को अलविदा कह गए।

यह ऐसी घटना थी जिसके बारे में परिवार के सदस्यों ने कभी कल्पना भी नहीं की थी। एक झटके में घर की खुशियाँ कपूर की तरह उड़ गयीं। चूंकि यूसुफ़ साहब प्रबंधन का विरोध कर रहे थे इसलिए कंपनी से किसी मदद की उम्मीद नहीं की जा सकती थी, लेकिन फ़ायज़ा और उनके बाकी भाई बहनों ने हिम्मत नहीं हारी, न किसी से मदद मांगी। तब तक फ़ायज़ा एमए कर चुकी थीं। सभी बहनें उच्च शिक्षित और जिम्मेदार थीं इसलिए इतने बड़े हादसे के बाद भी सभी ने एक-दूसरे को संभाला लिया।

कुछ समय बाद फ़ायज़ा भारत भवन से जुड़ीं। वहाँ जाकर उन्हें एहसास हुआ कि उन्हें अपनी कला को निखारने के लिए जो भी चाहिए, वह भारत भवन में भरपूर है। वहां अंतर्राष्ट्रीय स्तर के बड़े बड़े कलाकारों का आना-जाना लगा रहता था, जिन्हें देखने और उनके काम को समझने का मौक़ा उन्हें मिला। एक से एक बेहतरीन कलाकारों की कला दीर्घाओं को देखने और महसूस करने का मौक़ा मिला।

फ़ायज़ा का काम जैसे जैसे निखरता गया उनके नाम की चर्चा भी होने लगी। वर्ष 2005 में उन्हें मध्यप्रदेश राज्य रुपंकर कला पुरस्कार से नवाज़ा गया। उसी साल कोलकाता की कला मर्मज्ञ राखी सरकार भारत भवन आईं और फ़ायज़ा की तीन कलाकृतियाँ अपने साथ लेकर गईं, जिन्हें सीमा आर्ट गैलरी में प्रदर्शित किया गया। उस प्रदर्शिनी में फ़ायज़ा की तीनों कलाकृतियाँ न केवल बिक गईं बल्कि कला समीक्षकों का ध्यान भी अपनी ओर आकर्षित किया। उसी दौरान एक नामचीन कला संग्राहक अभिषेक पोद्दार भारत भवन आए और वहां की वीथिकाओं में सज्जित फ़ायज़ा की सारी कलाकृतियों को उन्होंने अपने संग्रह में शामिल कर लिया। निःसंदेह यह फ़ायज़ाके लिए सम्मान की बात थी।  

जिस तरह खुशबू दूर दूर तक उड़कर अपनी मौजूदगी बता देती है उसी तरह एक कलाकार की प्रतिभा भी कद्रदानों को अपनी और खींच ही लेती है। कुछ ही दिनों के बाद फ़ायज़ा को सीगल आर्ट गैलरी से सोलो एग्ज़िबिशन का न्योता मिला। इस तरह 2007 में सीगल फाउंडेशन ऑफ़ दी आर्ट, कोलकाता के अंतर्गत फ़ायज़ा की पहली एकल प्रदर्शनी हुई, जिसमें उनके चित्रों की आम लोगों के बीच तारीफ तो हुई ही, कला समीक्षकों भी प्रभावित हुए। उल्लेखनीय है कि इससे पूर्व वर्ष 2006 में उन्हें 72वां आल इण्डिया अवार्ड, अमृतसर -2006 और 78वां आल इण्डिया फाइन आर्ट एंड क्राफ्ट सोसाइटी अवार्ड -2006 से नवाज़ा जा चुका था।

इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। आरुषि आर्ट्स, नई दिल्ली के आमंत्रण पर वर्ष 2008 में फ़ायज़ा के चित्रों की प्रदर्शनी लगी। वर्ष 2008-09 में उन्हें संस्कृति विभाग की जूनियर फेलोशिप मिली। कहा जा सकता है कि फ़ायज़ा हुमा की कला यात्रा में मौके खुद आगे बढ़कर उन तक पहुंचे और उन्हें लपककर हासिल करने की बजाय उन्होंने उनसे कहा होगा, “थोड़ी देर रुको, पहले ये काम पूरा कर लूं| “

फ़ायज़ा अपने कैनवास पर अमूर्त चित्र उकेरती हैं जिसमें कुछ लकीरें, कुछ आकृतियाँ जो रंगों और उपरंगों के प्रभाव से रहस्यमयी सी लगती हैं, जिन्हें देखकर वास्तविक दुनिया में नज़र आने वाली किसी चीज़ की प्रतीति कह सकते लेकिन उनमें पूरी की पूरी कहानी होती है। फ़ायज़ा कहती हैं,  मेरे लिए चित्रकला और कविता एक ही किताब के दो खुले पन्नों की तरह हैं, यह पहले से नहीं तय होता कि  कोई भी विचार पहले चित्र रूप में ढलेगा या कविता की शक्ल में सामने आएगा। ज़्यादातर ये दोनों काम साथ-साथ ही होते हैं।  

उन्होंने अपनी एक चित्र श्रृंखला 'waves of infinity sound, Light, Time' में रोशनी, आवाज़ और समय तीन विषयों को शामिल किया। फ़ायज़ा का मानना है कि आवाज़ें, रोशनी और वक़्त हमेशा ज़िंदा और कायम रहते हैं। कैनवास पर ‘लाइट’ शीर्षक से बने अपने चित्र को लफ़्ज़ों का जामा पहनाते हुए वे अपनी कविता ‘रोशनी’ में लिखती हैं -

मैं रोशन हूँ चारों सिम्त/तीन सिम्त तुम पर ज़ाहिर /एक सिम्त तलाश हूँ मैं /मैं रोशन हूँ ख्यालात में / मैं रोशन हूँ सवालात में /तुम रास्ता हो मेरा और मैं तुम्हारा हासिल हूँ।

अपनी पेंटिंग ‘आवाज़’ के लिए वे लिखती हैं-

आवाज़ें  जिंदा रहती हैं एहसास बनकर/ आवाज़ें जिन्दा रहती हैं एक साज़ बनकर/ कभी खामोश कभी बहती सी/ कभी हलचल सी, कभी याद बनकर/ और कभी मेरी परवाज़ बनकर/ आवाज़ें जिंदा रहती हैं ख़ला में गूंज बनकर।

श्रृंखला की तीसरी पेशकश ‘समय’ को लेकर उनके ख़यालात उनकी पेंटिंग और उनकी कविता में  कुछ इस तरह ज़ाहिर होती हैं -

मैं वक़्त तक पहुँच नहीं पा रही/ मेरे लिए वक़्त नाम है अभी/ मैं वक़्त को जान लेना चाहती हूँ/ मैं वक़्त को जान लेना चाहती हूँ/ बिना किसी आकार के/ मैं वक़्त को जान लेना चाहती हूँ/ इस नाम के परे/ जिसे मैंने और तुमने / वक़्त के दायरे में बांधा है।

बेशक रोशनी, आवाज़ और समय जैसी अवधारणाओं को किसी दायरे में बांधना  मुमकिन नहीं इसलिए ये फ़ायज़ा के कैनवास को एक असीमित विस्तार दे देते हैं। इस श्रृंखला पर वे 2012 से 2016 तक काम करती रहीं। इन चित्रों और उन पर आधारित कविताओं की प्रदर्शनी 2016 में ‘सीगल फाउंडेशन फॉर दी आर्ट्स’ और ‘हार्मिंगटन स्ट्रीट आर्ट सेंटर’ ने मिलकर आयोजित की थी।

वर्ष 2016 में फ़ायज़ा की इन कृतियों को न्यूयार्क के पोलक क्रास्नर फाउंडेशन पुरस्कार से नवाज़ा गया। फ़ायज़ा का सफ़र आगे बढ़ा और वर्ष 2018 में भारत भवन बिनायल ऑफ़ कंटेम्परेरी इन्डियन आर्ट; 2018 का सम्मान मिला जो देश भर के कलाकारों में चुने हुए सिर्फ पांच कलाकारों को दिया जाता है। उस वर्ष प्रतिस्पर्धा में 230 कलाकार थे।

इसके बाद उन्होंने अपनी अगली अवधारणा ‘layers’ और ‘Directions’ पर काम करना शुरू कर दिया। ये दोनों अवधारणाएं एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं और तीन हिस्सों मिट्टी, रेत और पानी में बंटी हुई हैं। मिट्टी यानी मनुष्य का मिट्टी से जुड़ा होना, मिट्टी से बना होना, रेत यानी खुद की तलाश में खुद को रेज़ा-रेज़ा बिखेर देना, या किसी विषय के कण-कण तक पहुँच जाना, पानी यानी खुद को हर ठोस ढाँचे से बाहर महसूस करते हुए पानी की तरह बह जाना है। अपने इस ख़याल को लफ़्ज़ों में ज़ाहिर करते हुए वे कहती हैं, -“दुनिया में रहो तो मिट्टी, जो तलाश लो अन्दर तो रेत और जो गहरे उतर जाओ तो पानी।

इस शीर्षक पर काम करने के दौरान उन्हें 2022 में एक बार फिर पोलक क्रास्नर फाउंडेशन पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

फ़ायज़ा के लिए उनका कला संसार एक दार्शनिक यात्रा है जिसका चित्र दर चित्र मानचित्र बनाया जा सकता है। अपने 22 से 23 सालों की कला यात्रा में अब तक वे कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कला वीथिकाओं में अपने चित्रों का प्रदर्शन कर चुकी हैं। वे भोपाल में रहते हुए विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाने में कामयाब रही हैं और उनकी कला यात्रा अभी भी जारी है।

सन्दर्भ स्रोत : सारिका ठाकुर की फ़ायज़ा हुमा  से हुई बातचीत पर आधारित 

© मीडियाटिक

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