तिरुवनंतपुरम। केरल हाईकोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। कोर्ट ने कहा है कि 'व्यभिचार में रहना' (Living in Adultery) साबित करने के लिए परिस्थितिजन्य साक्ष्य (Circumstantial Evidence) ही काफी हैं। यह फैसला उन मामलों में पत्नी के भरण-पोषण (Maintenance) के दावे को खारिज करने के लिए पर्याप्त होगा, जो दंड प्रक्रिया संहिता (CRPC) की धारा 125 के तहत किया जाता है। जस्टिस कौसर एडप्पगथ ने यह फैसला सुनाया। कोर्ट ने यह फैसला एक ऐसे मामले में सुनाया, जहां फैमिली कोर्ट ने एक महिला को भरण-पोषण देने का आदेश दिया था, जबकि पति ने सबूत पेश किए थे कि उसकी पत्नी व्यभिचार में रह रही है।
पति के वकील ने दलील दी कि फैमिली कोर्ट का फैसला गैरकानूनी और गलत है। उन्होंने कहा कि यह सीआरपीसी की धारा 125 (4) के प्रावधानों के खिलाफ है। इस धारा के अनुसार, कोई भी पत्नी अपने पति से भरण-पोषण का हकदार नहीं होगी, यदि वह व्यभिचार में रह रही हो। वकील ने यह भी कहा कि फैमिली कोर्ट में पर्याप्त सबूत पेश किए गए थे, जिन्हें नजरअंदाज कर दिया गया। वहीं, पत्नी के वकील ने 'टी मर्सी और अन्य बनाम वी एम वरुगेस और स्टेट (1967 SCC OnLine Ker 95)' जैसे फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि पत्नी को भरण-पोषण से तभी वंचित किया जा सकता है, जब पति यह साबित कर दे कि वह लगातार व्यभिचार में रह रही है। एक या दो बार ऐसा होने से पत्नी भरण-पोषण की हकदार नहीं रहती।
कोर्ट ने इस बात की जांच की कि पत्नी के 'व्यभिचार में रहने' को साबित करने के लिए किस स्तर के सबूत की आवश्यकता होती है। कोर्ट ने माना कि सीआरपीसी की धारा 125 के तहत पत्नी का अधिकार एक सिविल अधिकार है। इस धारा के तहत भरण-पोषण की कार्यवाही भी सिविल कार्यवाही मानी जाती है, भले ही इसका उल्लंघन होने पर दंड का प्रावधान हो। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि सिविल मामलों में सबूत का मानक 'संभावनाओं की अधिकता' पर आधारित होता है। कोर्ट ने कहा कि जब पति यह आरोप लगाता है कि पत्नी व्यभिचार में रह रही है और इसलिए भरण-पोषण की हकदार नहीं है, तो उसे यह साबित करने की आवश्यकता नहीं है कि व्यभिचार का कार्य 'उचित संदेह से परे' हुआ हो, जैसा कि अब निरस्त हो चुकी आईपीसी की धारा 497 के तहत आपराधिक अभियोजन में होता है। इसके बजाय संभावनाओं की अधिकता के आधार पर सबूत पर्याप्त है। कोर्ट ने आगे कहा कि व्यभिचार जैसी चीजें अक्सर गुप्त रूप से होती हैं, जिससे सीधे तौर पर सबूत मिलना मुश्किल हो जाता है। इसलिए, इसे परिस्थितिजन्य साक्ष्य के माध्यम से स्थापित किया जा सकता है, बशर्ते कि परिस्थितियां तार्किक रूप से उसी निष्कर्ष की ओर ले जाएं।
इसके बाद कोर्ट ने पति द्वारा पेश किए गए सबूतों की जांच की। इन सबूतों में एक मनोवैज्ञानिक की गवाही, इलाज के रिकॉर्ड जिसमें पत्नी ने एक विवाहेतर संबंध (Extramarital Relationship) स्वीकार किया था, एक गवाह का बयान जिसने पत्नी को आपत्तिजनक स्थिति में देखने का दावा किया था, कॉल डिटेल रिकॉर्ड (CDR) और उस कथित साथी की पत्नी द्वारा दायर तलाक की कार्यवाही शामिल थी, जिसमें इसी तरह के आचरण का आरोप लगाया गया था।
कोर्ट ने इन सबूतों को देखते हुए फैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा कि उपरोक्त परिस्थितिजन्य साक्ष्य, संभावनाओं की अधिकता के आधार पर, 'व्यभिचार में रहने' के तथ्य को स्थापित करने के लिए पर्याप्त हैं, ताकि सीआरपीसी की धारा 125 के तहत पत्नी के दावे को खारिज किया जा सके। कोर्ट ने यह भी माना कि इन सबूतों को मिलाकर वे सिविल मानक को पूरा करते हैं और स्पष्ट रूप से स्थापित करते हैं कि पत्नी व्यभिचार में रह रही थी। इस आधार पर कोर्ट ने फैमिली कोर्ट की ओर से भरण-पोषण का आदेश देने वाले फैसले को रद्द कर दिया।
कोर्ट ने टिप्पणी की कि फैमिली कोर्ट का यह निष्कर्ष कि सबूत अपर्याप्त थे। साक्ष्य के मूल्यांकन के स्थापित सिद्धांतों के खिलाफ है। इसलिए कोर्ट ने फैसला सुनाया कि पत्नी भरण-पोषण की हकदार नहीं है और रिवीजन याचिका को स्वीकार कर लिया। इस फैसले से यह स्पष्ट होता है कि अब केरल हाई कोर्ट के अनुसार, व्यभिचार में रहने के आरोप को साबित करने के लिए परिस्थितिजन्य साक्ष्य भी काफी माने जाएंगे, जिससे पत्नी के भरण-पोषण के अधिकार पर असर पड़ सकता है। यह फैसला उन पतियों के लिए राहत भरा हो सकता है जो अपनी पत्नियों पर व्यभिचार का आरोप लगाते हैं और भरण-पोषण के भुगतान से बचना चाहते हैं।



Comments
Leave A reply
Your email address will not be published. Required fields are marked *