इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि हिंदू विवाह अनुबंध नहीं है जिसे सहमति से भंग किया जा सके। कानूनी प्रक्रिया के तहत ही सीमित आधारों पर हिंदू विवाह भंग या समाप्त किया जा सकता है। कोर्ट ने कहा यदि दोनों में से किसी पर नपुंसकता का आरोप है तो अदालत साक्ष्य लेकर विवाह को शून्य घोषित कर सकती थी किन्तु इस मामले में निचली अदालत ने इसकी उपेक्षा की। यह टिप्पणी जस्टिस सौमित्र दयाल सिंह और जस्टिस डोनाडी रमेश की खंडपीठ ने की, जिन्होंने एक महिला द्वारा दायर अपील को स्वीकार करते हुए पारिवारिक अदालत के उस फैसले को खारिज कर दिया जिसमें महिला के पति की याचिका पर उनका विवाह भंग कर दिया गया था।
यह मामला एक दंपति से जुड़ा है जिनका विवाह 2006 में हुआ था। पति, जो भारतीय सेना में कर्मचारी हैं, ने 2007 में पत्नी पर उन्हें छोड़ने का आरोप लगाते हुए 2008 में तलाक के लिए याचिका दायर की। पति ने यह भी दावा किया कि उनकी पत्नी निःसंतान (बाँझ) हैं, जिसके आधार पर उन्होंने तलाक की माँग की। इस मामले में शुरुआत में, 2008 में पत्नी ने अपने पहले लिखित बयान में तलाक के लिए सहमति दी थी। हालाँकि, बाद में 2010 में पत्नी ने दूसरा लिखित बयान दायर कर तलाक का विरोध किया और पति के बांझपन के आरोप को गलत साबित करने के लिए दस्तावेज पेश किए। उन्होंने यह भी बताया कि 2008 में, जब तलाक की याचिका दायर की गई थी, तब वह पहले ही एक बच्चे को जन्म दे चुकी थीं और 2010 में दूसरा बच्चा भी हुआ था।
2011 में, पति ने पत्नी द्वारा दूसरा लिखित बयान दायर करने पर आपत्ति जताई। पारिवारिक अदालत ने पति की आपत्ति को स्वीकार किया और पत्नी के दूसरे लिखित बयान को नजरअंदाज कर दिया। उसी दिन, अदालत ने मामले की सुनवाई की और पति की तलाक की याचिका को मंजूरी दे दी। पत्नी ने इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पारिवारिक अदालत के फैसले को खारिज कर दिया, यह पाया कि पारिवारिक अदालत ने मामले की समग्रता से समीक्षा नहीं की थी। हाईकोर्ट ने कहा कि हालाँकि एक दूसरा लिखित बयान दायर करने पर कुछ सीमाएँ हैं, लेकिन निचली अदालत को बदले हुए हालातों को देखते हुए अतिरिक्त बयान मांगने से कोई नहीं रोकता। हाईकोर्ट ने यह भी पाया कि जब पारिवारिक अदालत ने तलाक की याचिका को मंजूरी दी, तब तक पति-पत्नी के बीच आपसी सहमति से तलाक का आधार समाप्त हो चुका था। हालाँकि पत्नी ने 2008 में तलाक के लिए सहमति दी थी, लेकिन बाद में 2010 में उसने अपना बयान बदल लिया था और तलाक का विरोध किया था। यह बात पत्नी की 2011 में दी गई मौखिक गवाही से भी स्पष्ट थी। हाईकोर्ट के अनुसार, निचली अदालत को यह जाँच करनी चाहिए थी कि क्या पत्नी ने अपनी राय बदली थी।
हाईकोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि हिंदू विवाह को एक अनुबंध की तरह समाप्त नहीं किया जा सकता। अदालत ने कहा, “यह विस्तार की आवश्यकता नहीं है कि हिंदू विवाह को अनुबंध की तरह समाप्त या भंग नहीं किया जा सकता। कानूनन, हिंदू विवाह केवल सीमित परिस्थितियों में भंग हो सकता है, और वह भी साक्ष्यों के आधार पर।”\ अदालत ने यह भी कहा कि अगर कोई पति या पत्नी निःसंतान होने का आरोप लगाता है तो यह आरोप केवल साक्ष्य के आधार पर ही साबित किया जा सकता है। अदालत ने पारिवारिक अदालत के निर्णय को इस आधार पर खारिज कर दिया कि निचली अदालत ने मामले की पूर्ण समीक्षा नहीं की थी और केवल पहले लिखित बयान और 2008 की सहमति पर भरोसा किया था।
हाईकोर्ट ने यह सुनिश्चित किया कि तलाक का कोई भी निर्णय उचित साक्ष्यों और समग्र दृष्टिकोण के आधार पर ही लिया जाना चाहिए। साथ ही, अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि केवल एक बार दी गई सहमति के आधार पर तलाक नहीं दिया जा सकता, खासकर जब वह सहमति बाद में वापस ले ली गई हो।
सन्दर्भ स्रोत : विभिन्न वेबसाइट
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