लिव इन रिलेशनशिप पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का बड़ा आदेश दिया है। शादीशुदा महिला को पहली शादी कायम रहने पर लिव इन पार्टनर से भरण पोषण का हक नहीं मिलेगा। हाईकोर्ट ने कानपुर की विवाहिता की याचिका को खारिज कर दिया है। अपना फैसला सुनाते हुए कोर्ट ने कहा कि लंबे समय तक लिव इन में रहने से पत्नी का वैधानिक दर्जा नहीं मिलता। जब तक कि महिला का पहली शादी से विधिवत् तलाक न हो जाए।
क्या है ये पूरा मामला?
यह आदेश जस्टिस मदन पाल सिंह की सिंगल बेंच ने कानपुर नगर की महिला की याचिका पर दिया है। जानकारी के मुताबिक, लिव इन रिलेशनशिप में रही महिला ने पार्टनर से भरण पोषण की मांग की थी। महिला ने कहा था कि वह पिछले दस सालों से लिव इन रिलेशनशिप पति पत्नी की तरह रह रही थी। महिला ने पार्टनर पर शादी का झूठा आश्वासन देकर धोखा देने का भी आरोप लगाया है।
हालांकि, लिव इन पार्टनर ने कहा कि महिला पूर्व से विवाहित है। पहले पति से महिला का कानूनी रूप से कोई तलाक नहीं हुआ है। हाई कोर्ट ने दोनों पक्षों को सुनने के बाद कहा कि हिन्दू विवाह अधिनियम के तहत जीवन साथी के जीवित रहते किया गया विवाह शून्य माना जाता है। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा कि ऐसी मांगे मानी गई तो हिंदू पारिवारिक कानून की नैतिक और सांस्कृतिक नींव को कमजोर करेगी।
लिव-इन संबंध में नहीं मिलेगी सुरक्षा
यह पहली बार नहीं है जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यह बड़ा फैसला सुनाया है। इससे पहले एक विवाहिता की याचिका पर हाईकोर्ट ने एक लिव-इन कपल को सुरक्षा देने से इनकार कर दिया है। तब कोर्ट ने कहा था कि हिंदू विवाह अधिनियम के तहत शादीशुदा महिला अपने विवाह के रहते किसी अन्य संबंध के लिए अदालत से सुरक्षा नहीं मांग सकती।
याचिकाकर्ताओं ने कोर्ट से मैंडमस जारी करने की मांग की थी, ताकि पुलिस और महिला के पति को उनके 'शांतिपूर्ण जीवन' में दखल देने से रोका जा सके। मैंडमस एक ऐसा आदेश है जिसे कोर्ट किसी निचली संस्था या अधिकारी को उसके कानूनी कर्तव्य का पालन कराने के लिए जारी करती है।



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