गरीब आदिवासी महिलाओं ने मजदूरी छोड़ थामी कूची, विदेशों में भी हैं पेंटिंग के मुरीद 

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गरीब आदिवासी महिलाओं ने मजदूरी छोड़ थामी कूची, विदेशों में भी हैं पेंटिंग के मुरीद 

छाया:  नव दुनिया

यदि आपके पास हुनर है तो एक न एक दिन आप अपना मुकाम हासिल कर ही लेते हैं। बस स्वयं को परिस्थितियों के अनुसार ढालना है और हार नहीं माननी है। यह बात उमरिया जिले के लोढ़ा जैसे छोटे से गांव में जन्म लेने वाली आदिवासी परिवार की उन महिलाओं ने पर सटीक बैठती हैं, जिनका गुजारा महुआ बीनने और ईंट बनाने से होता था और जिन्होंने फाइन आर्ट का नाम तक नहीं सुना था, लेकिन अब ये महिलाएं आदिवासी कलाकार के रूप में स्थापित हो गई हैं और कला संसार में नये आयाम रच रही हैं।

• चित्र विदेशी पर्यटक सबसे ज्यादा पसंद करते हैं

ऐसी महिलाओं में ग्राम लोढ़ा की रामरती बाई बैगा और संतोष बाई बैगा के नाम शामिल हैं, जिनके बनाए बैगा आदिवासी शैली के चित्र दिल्ली के भूमिजन प्रदर्शनी और बांधवगढ़ के ललित कला के आयोजन में शामिल हो चुके हैं, जहां इनका सम्मान भी हुआ। इन महिलाओं के बनाए चित्र विदेशी पर्यटक सबसे ज्यादा पसंद करते हैं और उनकी मांग ब्रिटेन, जापान और कुछ अन्य देशों में है।

• संघर्ष के रास्ते, सफलता की मंजिल

जनगण तस्वीरखाना का संचालन कर रहे निमिष स्वामी बताते हैं कि जिले की इन महिलाओं ने संघर्ष का लंबा रास्ता तय किया, तब जाकर इन्हें सफलता हासिल हुई। आदिवासी परिवार की ये गरीब महिलाएं पारंपरिक आदिवासी कला से जुड़ी रहीं। इन्हें स्वर्गीय आशीष स्वामी ने 2006 में अवसर दिया और ये महिलाएं उत्कृष्ट कलाकार बन गईं। इन महिलाओं ने न सिर्फ अपना परिवार संभाला बल्कि अनपढ़ होते हुए भी कला की ऐसी साधना की जिससे इनके साथ जिले का नाम भी रोशन हो गया।

• बनाती थी ईंट

रामरती बाई बैगा और संतोषी बाई बैगा के घर के चूल्हे तब जलते थे, जब ये ईंट भट्टों पर दिनभर खुद को धूप में तपाकर ईंट बनाती थीं। सीजन में सुबह महुआ बीनने जाती थीं और आठ बजे चावल और उसका माड़ खाकर ईंट भट्टे पर पहुंच जाती थीं। घर की सफाई के दौरान स्वर्गीय आशीष स्वामी ने दोनों महिलाओं के अंदर पारंपरिक आदिवासी कलाकार को देखा और उन्हें प्रेरित किया।

• दीवारें सजाने से केनवास तक का सफर

रामरती बाई बैगा और संतोषी बैगा ने बताया कि जब वे अपने घर की सफाई करके उसे सजाती थीं तो देखने में उनका मिट्टी का बना घर आकर्षक लगने लगता था। वे उसे गोबर से लीपती थीं और गेरू, छूही माटी, पीली माटी से सजाती थीं। गेरू और पीली माटी से फूल, पक्षी और तितलियां बनाकर दीवारों को सजा देती थीं। उनकी इस कला को देखने के बाद स्वर्गीय आशीष स्वामी ने उन्हें चित्र बनाने के लिए कागज और कलर दिया और ट्रेनिंग भी दी। कुछ ही समय में दोनों महिलाएं कागज पर चित्र बनाने में निपुण हो गईं। इसके बाद उन्हें केनवास दिया तो इन आदिवासी अनपढ़ महिलाओं ने कला का संसार रच डाला।

सन्दर्भ स्रोत – नव दुनिया

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