दिल्ली हाईकोर्ट : गर्भावस्था नहीं बन

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दिल्ली हाईकोर्ट : गर्भावस्था नहीं बन
सकती नौकरी छीनने की वजह

दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में एक मामले की सुनवाई करते हुए रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स को कड़ी फटकार लगाई है। कोर्ट ने कहा है कि गर्भावस्था कोई बीमारी या विकलांगता नहीं है और यह महिलाओं को सार्वजनिक रोजगार देने से इनकार करने का आधार नहीं हो सकता। दरअसल कोर्ट उस मामले की सुनवाई कर रही थी जिसमें आरपीएफ ने गर्भवती महिला के कॉन्सटेबल पद के लिए फिजिकल एफिशिएंसी टेस्ट को स्थगित करने के उसके अनुरोध को अस्वीकार कर दिया था। 

रेलवे पुलिस फोर्स (RPF) में कॉन्स्टेबल के रूप में भर्ती होने की इच्छुक ईशा के मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने जो फैसला सुनाया, वह इस स्थिति से गुजरने वाली हर महिला के लिए नजीर बन गया। हाई कोर्ट ने उम्मीद जताई कि सभी नियोक्ता, खासतौर पर राज्य, भविष्य में यह सुनिश्चित करेंगे कि कोई भी महिला केवल गर्भावस्था की वजह से नौकरी के अवसर से वंचित न रहे। लैंगिक समानता पर जोर देने वाले इस फैसले में हाईकोर्ट ने कहा कि गर्भावस्था के आधार पर भेदभाव कभी भी किसी महिला के करियर बनाने की आकांक्षाओं को पूरा करने के अधिकार के आड़े नहीं आना चाहिए क्योंकि मातृत्व को एक बाधा के रूप में नहीं, बल्कि हर महिला के मौलिक मानव अधिकार के रूप में देखा जाना चाहिए।

क्या है पूरा मामला?

जस्टिस रेखा पल्ली और जस्टिस शालिंदर कौर की बेंच ने ईशा की याचिका मंजूर कर ली, जो आरपीएफ/आरपीएसएफ में कॉन्स्टेबल के तौर पर भर्ती होना चाहती थीं। लेकिन, वरीयता सूची में नाम आने के बावजूद उन्हें नियुक्ति से वंचित कर दिया गया, क्योंकि वह 20 अप्रैल 2019 में फिजिकल एफिशिएंसी और मेजरमेंट टेस्ट में अपनी प्रेग्नेंसी की वजह से भाग नहीं ले सकी थीं। हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार और संबंधित अधिकारियों पर 1 लाख का हर्जाना लगाते हुए उन्हें निर्देश दिया कि वे याचिकाकर्ता को नौकरी देने के साथ जरूरी राहतें भी प्रदान करें।

लैंगिक समानता के मुद्दे पर यूनाइटेड स्टेट्स के पूर्व महासचिव बान की मून की टिप्पणी का जिक्र करते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि मौजूदा मामले से पता चलता है कि लैंगिक समानता हासिल करने में सार्थक प्रगति आज तक अधूरी है। कोर्ट ने कहा कि गर्भावस्था को विकलांगता के रूप में नहीं माना जा सकता, बल्कि यह शादी के प्राकृतिक परिणामों में से एक है और इसलिए हरेक नियोक्ता, खासतौर से राज्य से उन कठिनाइयों को समझने की उम्मीद की जाती है, जिनका एक महिला को गर्भावस्था के दौरान सामना करना पड़ता है।

सामने आने वाली चुनौतियों के प्रति आंखें नहीं मूंदनी चाहिए

कोर्ट ने माना कि प्रतिवादियों को महिला उम्मीदवारों के सामने आने वाली चुनौतियों के प्रति आंखें नहीं मूंदनी चाहिए और इतना असंवेदनशील रवैया नहीं अपनाना चाहिए, खासकर फोर्स में महिलाओं की नियुक्ति करते समय। कोर्ट ने इस बात को सराहे जाने पर जोर दिया कि न केवल साधारण नौकरियों में बल्कि सशस्त्र बलों/पुलिस में भी महिलाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व होना जरूरी है। महिलाओं को सरकारी नौकरियों के अवसरों से वंचित करने का आधार मेटरनिटी कभी नहीं होना चाहिए और न ही हो सकता है। यह दोहराते हुए कोर्ट ने कहा कि अब समय आ गया है कि सभी अधिकारी, विशेष रूप से सरकारी नौकरियों से जुड़े लोग यह समझें कि उन महिलाओं का समर्थन करना जरूरी है जो राष्ट्र में योगदान देने के लिए उत्सुक हैं, और यह सुनिश्चित करें कि उन्हें गर्भावस्था या ऐसे ही किसी दूसरे कारण से उनके अधिकारों से वंचित न किया जाए।

संदर्भ स्रोत : विभिन्न वेबसाइट

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