मालवा की सांस्कृतिक धरोहर सहेज रहीं कृष्णा वर्मा

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मालवा की सांस्कृतिक धरोहर सहेज रहीं कृष्णा वर्मा

छाया : स्व संप्रेषित

•  सीमा चौबे 

मालवा की लुप्त होती लोक संस्कृति (लोक-गायन, लोक कला -संझा, मांडने एवं माच कला) को संरक्षित करने में अपना पूरा जीवन समर्पित कर देने वाली उज्जैन की कलाकार कृष्णा वर्मा किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। वर्षों की साधना एवं लोककला के प्रति निरन्तर समर्पित उनकी सेवाओं का ही नतीजा है कि राष्ट्रीय स्तर पर आज उनकी पहचान कलाप्रेमी, कला आचार्य एवं कला निदेशक के रूप में स्थापित हो चुकी है, लेकिन कम ही लोगों को पता है कि उनके जीवन का लंबा हिस्सा मुफलिसी में बीता, जहाँ कई बार उन्हें भूखे भी रहना पड़ा। कृष्णा जी ने आज जो ख्याति अर्जित की है, उसके पीछे उनकी कठिन साधना और संघर्ष की लम्बी कहानी है। 

उज्जैन के प्रसिद्ध लोक नाट्य ‘माच’ कलाकार श्री सिद्धेश्वर सेन और श्रीमती कंचन बाई के घर वर्ष 1 अप्रैल 1956 को जन्मी कृष्णा ने माँ और दादी रमाबाई से गोबर, फूल-पत्तियों एवं रंगों से विभिन्न आकृतियों में संजा एवं मांडने बनाने का हुनर पांच साल की उम्र में ही सीख लिया था। वे संजा बनाने के लिए गोबर बीनने जाती तो गोबर देखकर उनकी कुछ सहेलियां नाक-भौं सिकोड़ती, लेकिन कृष्णा ने कभी गुरेज नहीं किया। उस समय उस नन्ही बच्ची ने स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा कि यह कला एक दिन उन्हें शिखर सम्मान तक पहुँचा देगी। वे कहती हैं अगर उस समय गोबर में हाथ डालने से कतराती तो आज इस मुकाम तक नहीं पहुंच पाती। मध्यप्रदेश में पिता-पुत्री की यह अकेली जोड़ी है, जिसे राज्य सरकार का प्रतिष्ठित शिखर सम्मान (अलग-अलग) प्राप्त हुआ है। 

श्री सिद्धेश्वर सेन तो राष्ट्रपति पुरस्कार से भी सम्मानित हुए। वे ऐसे कलाकार, लेखक एवं निर्देशक थे, जिन्होंने माच के जरिए सामाजिक कुरीतियों के प्रति लोगों को जागरूक किया, इसके साथ ही पौराणिक और ऐतिहासिक कथाओं के माध्यम से सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं का भी प्रचार-प्रसार किया। उन्होंने 30 गाँवों में माच की शाखाएँ बनायीं और नये कलाकारों को इस विधा से जोड़ा।  शुरुआती दिनों में उन्हें इससे कोई आमदनी नहीं होती थी, बावजूद इसके वे कई-कई घंटों तक माच लिखने में व्यस्त रहते - इस बात की परवाह किये बिना, कि घर में 2 जून की रोटी का जुगाड़ कैसे होगा। वे नाई की अपनी पुश्तैनी दुकान पर भी ध्यान नहीं देते, नतीजतन उनका यह व्यवसाय धीरे-धीरे बंद हो गया। कृष्णा जी बताती हैं कि घर में सब्जी तो कभी कभार ही बनती थी, लेकिन रोज बनने वाली चटनी भी शाम तक जब खत्म हो जाती तो उसी बर्तन में पानी डालकर उस घोल से रोटी खाते। जब घर की माली हालत कंचन बाई और उनकी सास से देखी  नहीं गई तो दोनों अगरबत्ती के एक कारखाने में काम करने जाने लगीं। इस तरह उनके दोनों समय भोजन का जुगाड़ होने लगा।

तब कृष्णा जी बड़े भाई के साथ घर पर ही रहती और पिता अपने काम में मशगूल। वे माच नाट्य के लिए कभी-कभी कृष्णा जी को भी साथ ले जाते। एक तरफ माँ और दादी से संजा मांडना, तो दूसरी तरफ माच नाट्य के संस्कार उनके हुनर को तराश रहे थे। माँ और दादी जब काम पर जातीं तो घर बुहारने और बर्तन धोने का जिम्मा कृष्णा जी का ही होता। ख़राब माली हालात के चलते उनकी शिक्षा आठवीं तक ही हो सकी और 1970 में जब वे केवल 14 वर्ष की थीं, उनका ब्याह देवास निवासी श्री मोहनलाल वर्मा से कर दिया गया। लेकिन तंगहाली ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। शादी के एक वर्ष बाद ही वे एक बेटे की माँ भी बन गई। पति की नाई की दुकान से घर का गुजर बसर मुश्किल था ऐसे में अपने दुधमुंहे बच्चे को ससुर के हवाले कर वे 3 रूपये रोज़ पर सिलाई करने जाती। इसी बीच उनके पिता ने हायर सेकेंडरी के लिए प्राइवेट फॉर्म भरवा दिया। अब पारिवारिक दायित्व, सिलाई का काम और पढ़ाई का अतिरिक्त बोझ उनके सिर पर आ गया। लेकिन जैसे-तैसे उन्होंने हायर सेकेंडरी की परीक्षा पास कर ही ली।

एक दिन उनके पिता जब अचानक उनसे मिलने पहुंचे तो देखा कि बच्चा घर में अकेला पड़ा रो रहा है। जब उन्होंने घरवालों को  आसपास  नहीं पाया तो पड़ोसियों को बताकर रोते बिलखते बच्चे को साथ लेकर उज्जैन आ गये। बाद में उन्होंने दामाद की रजामंदी के साथ कृष्णा को भी अपने पास ही बुला लिया। कृष्णा ससुराल में पांच वर्ष ही रहीं मायके आने के बाद उनका ससुराल से सम्पर्क न के बराबर ही रहा। कुछ साल बाद पति का स्वर्गवास हो गया और वे उज्जैन की ही होकर रह गईं और पिता के साथ माच कार्यक्रमों से जुड़ गईं।

सिद्धेश्वर जी ने 1956 में जिस मालवा लोकनाट्य संस्था ‘लोकनाट्य माच’ की नींव रखी थी, कृष्णा जी आज उसकी संचालक हैं। वे बताती हैं बचपन में पिता के साथ साइकिल के डंडे पर बैठकर पोथियाँ लिए गाँव-गाँव जाया करती थीं। परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए उनके पिता ने सामाजिक ताने बाने की परवाह नहीं की। 1962 में जब लोग अपनी बच्चियों को घर से बाहर निकालने में भी डरते थे और महिलाओं का रात में मंचीय प्रदर्शन करना काफी बुरा माना जाता था, उनके पिता ने महिला सशक्तिकरण की मिसाल पेश की और लोगों के तानों को दरकिनार करते हुए कृष्णा जी को माच नाट्य में शामिल किया। उन्हीं की पहल पर माच के मंच पर वर्जित रही स्त्री कलाकारों की आमद हुई। उन्होंने माच में महिला किरदारों में महिलाओं को जोड़कर एक नई दिशा दी और महिला कलाकारों को माच का महत्वपूर्ण अंग बनाया।

यूं तो उनके पिता ने वर्ष 1956 में ही माच का प्रदर्शन करना प्रारम्भ कर दिया था, लेकिन उनकी वास्तविक यात्रा वर्ष 65 से भोपाल के जनजातीय संग्रहालय में वसंत निर्गुणे जी से मुलाकात के बाद शुरू हुई। निर्गुणे  जी ने संग्रहालय और लोकरंग कार्यक्रमों से सिद्धेश्वर जी को जोड़ा। अब उन्हें शासकीय स्तर पर होने वाले प्रदेश स्तर के कार्यक्रमों के लिए बुलावा आने लगा। इसी वर्ष भारत सरकार के सॉन्ग-ड्रामा डिवीजन में रजिस्ट्रेशन के बाद उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुति के अवसर भी मिलने लगे। यहीं से उनके काम और नाम को पहचान मिलनी शुरू हुई। ज्यादातर कार्यक्रमों में कृष्णा जी उनके साथ ही रहतीं। धीरे-धीरे जब आर्थिक स्थिति कुछ बेहतर हुई तो उन्होंने अपनी माँ और पत्नी से अगरबत्ती बनाने का काम बंद करवा दिया। अब कंचनबाई भी माच खेलों में कलाकारों का श्रृंगार करने के लिए जाने लगीं। इतना ही नहीं, वे मंडली की भोजन आदि की व्यवस्था भी सम्हालतीं। शादी-ब्याह में मांडना बनाने के साथ ही संजा-सांझी बनाने का काम भी बेटी को साथ लेकर करती रहीं।  

वर्ष 77-78 में दैनिक वेतन पर लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग में कृष्णा की नौकरी लग गई। 10 वर्ष बाद उन्हें नियमित कर दिया गया। वर्ष 88-89 में कंचन जी और कृष्णा का लोकरंग से बुलावा आया। यहाँ से शुरू हुई कृष्णा की कलायात्रा ने इसके बाद नए-नए आयाम तय किये। इसके बाद उन्हें मध्यप्रदेश के अलावा मध्य क्षेत्र नागपुर, उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र, प्रयागराज से भी बुलावा आने लगा। मालवी परंपरा की सजावट के लिए उन्हें पचमढ़ी, खजुराहो, भोपाल, इंदौर सहित देश के कई हिस्सों से आमंत्रित किया गया। कृष्णा जी अपने पिता के मंचों की सजावट भी किया करती थीं। वे आकाशवाणी में लोकगीत गायिका एवं 1976 से 1988 तक महिलाओं के लिए ग्राम लक्ष्मी एवं किसान भाइयों के लिए खेती गृहस्थी कार्यक्रम के लिए मालवी भाषा में सक्रिय प्रस्तुति देती रहीं।

माता-पिता की विरासत और परंपरा को आगे बढ़ाते हुए कृष्णा वर्मा जी ने मालवा की प्रसिद्ध धरोहर संजा और मांडने की कला को भी काफ़ी समृद्ध किया है। उन्होंने लोकगीतों से मालवा की मिट्टी की महक देश के कोने कोने में पहुँचाई है। कृष्णा ने अपने माता-पिता की तरह मालवा की कलाओं को आगे बढ़ाने के लिये निरन्तर श्रम किया। उन्होंने मालवा के लोकनृत्य मटकी में नवाचार करते हुए सात प्रकार के नृत्य (आड़ा, खड़ा, रजवाडी, पनिहारी, जात्रा, स्वांग, कानगुवालिया आदि) के मेल से विशेष मटकी नृत्य तैयार किया।  

कृष्णा जी की कलाओं को भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा, श्री केआर नारायणन, प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी, श्री राजीव गांधी तथा श्री नरसिम्हा राव, श्रीमती  सोनिया गांधी, श्री मोतीलाल वोरा, श्री अर्जुन सिंह, श्री  दिग्विजय सिंह, श्री अमिताभ बच्चन, श्री ओम पुरी, श्री अनुपम खेर, श्री अमरीश पुरी, श्रीमती वैजयन्ती माला, श्री देव आनन्द,  श्रीमती हेमा मालिनी,  श्री अमोल पालेकर,  श्री आमिर खान,  श्री राज बब्बर एवं श्रीमती  जूही चावला जैसी अनेक राष्ट्रीय हस्तियों ने निकट से देखा व सराहा है। अमेरिका में आयोजित लोक चित्रकला प्रदर्शनी में जहां कृष्णा के बनाये संजा-मांडने की कलाकृतियां प्रदर्शित की गई, वहीं एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में उज्जैन पधारे इजराइल के डेलीगेट्स  मांडणा-भित्ति चित्र और संजा बनवाकर साथ लेकर गये, जो वहां के संग्रहालय में संग्रहित है।

युवाओं को लोक कला से जोड़ रहा मालवा लोक कला केंद्र

संस्था के माध्यम से कृष्णा जी ने अब तक चित्रांकन, लोक-नृत्य और लोकनाट्य माच का प्रशिक्षण देकर 7,000 से भी अधिक लोगों को पारम्परिक कलाओं से जोड़ा है।  केंद्र, युवा वर्ग में लोक कला में नवचेतना जागृत करने के उद्देश्य से समय-समय पर आयोजित प्रशिक्षण कार्यशाला और शिविरों में  मालवा के वर्ष भर शादी, ब्याह एवं मांगलिक त्योहारों पर बनने वाले लोकचित्रों-लोक गीतों का प्रशिक्षण दिया जाता है। संस्था में इस समय 12 वर्ष से लेकर ३५ वर्ष के करीब 50 से अधिक युवक-युवती प्रशिक्षण ले रहे हैं।  

माच गुरु सिद्धेश्वर सेन द्वारा लिखित माचो को उनके परिवारजन, अनुयाई तथा माच कलाकार निरंतर आगे बढ़ा रहे हैं। बकौल कृष्णा जी “पिता से मिले लोक कला के संस्कार हमारी प्रत्येक पीढ़ी तक पहुंच रहे हैं। तीसरी पीढ़ी में  बहू हीरामणि विगत 25 साल से देश के विभिन्न शहरों में संजा-मांडना बनाने के अलावा लोक गायन की प्रस्तुतियां दे रही हैं वहीं चौथी पीढ़ी में पोते स्वप्निल और सिद्धार्थ अपनी नौकरी की जिम्मेदारियों के साथ माच की गंभीरता तथा लोकप्रियता के लिए भी प्रयासरत हैं। भाई प्रेम कुमार सेन माच मंडली का संचालन करते हैं और अपने पिता के लिखे माचों का मंचीय प्रदर्शन करवाते हैं”

 कृष्णा जी का मन मांडना, संजा  जैसे लोक चित्रांकनों में अधिक रमता है। वे अपनी मूल विधा मांडना-संझा को आगे बढ़ाना चाहती हैं। वे कहती हैं मालवा की इस लोक कला को आगे बढ़ाया जाए। युवा पीढ़ी भी इस कला में रुचि दिखाए तो इस कला को दुनिया में पहचान मिलेगी।

 

सम्मान-पुरस्कार

•  अभिनव कला परिषद एवं मधुबन सांस्कृतिक संस्था,भोपाल द्वारा  श्रेष्ठ कला आचार्य की उपाधि (2000)

•  मध्य प्रदेश संस्कृति संचालनालय द्वारा शिखर सम्मान (2002-03)

•  पं.सूर्यनारायण व्यास सम्मान (2007)

•  उज्जयिनी कला वीथिका द्वारा सारस्वत सम्मान  (2017)

•  निमाड़ उत्सव - मध्य प्रदेश शासन संस्कृति संचालनालय द्वारा देवी अहिल्या सम्मान (2017-18)

•  सांस्कृतिक स्रोत एवं प्रशिक्षण केन्द्र, दिल्ली द्वारा वरिष्ठ फेलोशिप ( 2019-2020)

•  संत बालीनाथ शोध संस्थान उज्जैन द्वारा  मथुरा देवी सम्मान (2020 )

•  प्रतिकल्पा सांस्कृतिक संस्था उज्जैन द्वारा प्रतिकल्पा सम्मान (2021)  

•  म.प्र.शासन-संस्कृति विभाग भोपाल द्वारा   राष्ट्रीय राजा मानसिंह तोमर सम्मान (2022)  

•  सहित इंदौर मालवा संस्कृति सम्मान,  गीत- नाटक प्रभाग भोपाल तथा  युवा उत्सव विक्रम यूनिवर्सिटी उज्जैन द्वारा सम्मानित

 

कला प्रदर्शन एवं प्रस्तुतियां

•  म.प्र. संस्कृति संचालनालय, भोपाल

•  लोकरंग, भोपाल

•  म.प्र.संस्कृति परिषद आदिवासी लोककला एवं बोली विकास अकादमी भोपाल

•  दक्षिण मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र, नागपुर

•  उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, इलाहाबाद

•  क्राफ्ट काउंसिल ऑफ इंडिया, ग्वालियर

•  पर्यटन विभाग, भोपाल

•  मप्र.हस्तशिल्प विकास निगम, भोपाल

•  उस्ताद अलाउद्दीन खाँ संगीत एवं कला अकादमी, भोपाल

•  कालिदास संस्कृत अकादमी, उज्जैन (म.प्र.)

•  गीत एवं नाटक प्रभाग भारत सरकार एवं भोपाल की ओर से अपना उत्सव-बम्बई, बैंगलोर, पूना प्रगति मैदान दिल्ली, क्राफ्ट म्यूजियम नई दिल्ली, लोकरंग भोपाल हैदराबाद, पचमढ़ी, रायपुर, मद्रास, इंदौर महेश्वर, मांडव, खजुराहो, भोजपुर, लखनऊ पटना, कोलकाता, सतना, आसनसोल, धनबाद, वाराणसी, विशाखापट्टनम, आगरा, अमृतसर., गांधीनगर, कच्छ, भुज, राजकोट, जूनागढ़, बड़ोदरा, अहमदाबाद, नैनीताल, रानीखेत, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, चमोली, श्रीनगर, देहरादून, गुवाहाटी, मणिपुर, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा गंगटोक अगरतला आइजोल, मेघालय, , जम्मू, कुल्लू, कटरा, पुरी, कटक, भुवनेश्वर, सिंहस्थ, कला उत्सव उज्जैन, ग्वालियर, उदयपुर, जयपुर, जोधपुर, नागपुर, कोटा, सागर, छत्तीसगढ़, श्योपुर, जालंधर, पठानकोट अमृतसर, लुधियाना, गुड़गांव, बीकानेर, जलगांव,  कानपुर, भागलपुर, इम्फाल, कोलकाता, पोरबन्दर, अटारी, शिलांग, साबरमती, औरंगाबाद, जामनगर, भावनगर, नवसारी गोरखपुर, मथुरा, अयोध्या, सोमनाथ, झांसी, राजनादगाँव, गुलबर्गा, जेसलमेर, चित्तौड़गढ़, अजमेर, बीकानेर, रुड़की, सूरत, मदुराई, गोवा,  रोहतक, हरिद्वार तंजाउर, चंडीगढ़ नाथद्वारा, तिरुपति आदि स्थानों पर मालवा का लोक नाट्य माच, लोकनृत्य मटकी, आदि एवं मालवा की लोक कला माँडना, भित्ति चित्र संजा आदि की मुख्य प्रस्तुतियाँ

सन्दर्भ स्रोत : कृष्णा वर्मा से सीमा चौबे की बातचीत पर आधारित 

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