मानव विज्ञान को नए आयाम देने वाली देश की पहली महिला डॉ लीला दुबे

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मानव विज्ञान को नए आयाम देने वाली देश की पहली महिला डॉ लीला दुबे

छाया : विकिपीडिया

अपने क्षेत्र की पहली महिला

• डॉ. शुभ्रता मिश्रा

 

• मध्यप्रदेश के जनजातीय समुदायों पर किए उल्लेखनीय शोध कार्य ।

• किशोरावस्था में ही कर लिया था स्वयं वर चुनने का निर्णय।

• अपनी तरफ से भेजा विवाह प्रस्ताव।

• पितृसत्तात्मक प्रथाओं और सिद्धांतों पर स्थापित किया अलग दृष्टिकोण।

• नारी समाज के लिए बनीं प्रेरणा स्रोत।

भारत में नारीवादी अग्रदूतों में से एक प्रसिद्ध मानवशास्त्री प्रोफेसर लीला दुबे का मध्यप्रदेश से विशेष नाता रहा है। हालांकि लीला जी के जन्मस्थान को लेकर अलग-अलग मत हैं, लेकिन यूनाइटेड इंडियन एंथ्रोपोलॉजी फोरम के अनुसार उनका जन्म 27 मार्च 1923 को सागर में एक पारंपरिक, लेकिन आधुनिक सोच रखने वाले संभ्रांत मध्यमवर्गीय, महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री गजानन अंबरदेकर जिला न्यायाधीश थे और माता श्रीमती सुंदरी सूबेदार हिंदू परम्परानिष्ठ महिला थीं। देश के महान समाजशास्त्री प्रोफेसर श्यामाचरण दुबे की धर्मपत्नी के रिश्ते से भी डॉ. लीला दुबे का ससुराल नरसिंहपुर रहा, वहीं साठ के दशक में प्रोफेसर लीला दुबे ने सागर विश्वविद्यालय के नृतत्वशास्त्र  विभाग में व्याख्याता से लेकर विभागाध्यक्ष के पदों को सुशोभित किया था। अपने प्रारंभिक अध्ययनों के दौरान उन्होंने मध्यप्रदेश के जनजातीय समुदायों विशेषतौर से गोंड जनजाति पर उल्लेखनीय शोधकार्य भी किए थे। हालांकि यह भी सच है कि प्रोफेसर लीला दुबे जैसी विदुषी का कार्यक्षेत्र प्रादेशिक सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। लीला दी के नाम से लोकप्रिय प्रोफेसर दुबे ने दिल्ली से लेकर लक्षदीव तक समस्त भारत के साथ साथ विश्व स्तर पर नृतत्व वैज्ञानिकों के समाज को अपनी पांडित्य से समृद्ध किया।

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जन्म से ही प्रखर बुद्धि वाली अपने पांच भाई बहनों की दुलारी लीलम् (घर में प्यार से बुलाया जाने वाला उनका नाम) के बचपन के एक प्रसंग का जिक्र करते हुए उनकी बड़ी बहन देश की प्रसिद्ध संगीत शास्त्री प्रोफेसर सुमति मुटाटकर ने लिखा है कि जब लीलाजी महज दस महीने की थीं, तब अकोला शहर में हुए बड़े से बेबी शो में लीलम् को प्रथम पारितोषिक मिला था और पूरे परिवार की खुशी का ठिकाना नहीं था। लीलाजी का परिवार उस समय का काफी आधुनिक परिवार कहा जा सकता है, क्योंकि वे सभी भाई बहन पश्चिमी शिक्षा में पले बढ़े थे। फिर भी उनकी विदुषी मां ने अपने सभी बच्चों को हिंदू सामाजिक-सांस्कृतिक संस्कार दिए थे। भारतीय सुसंस्कारों की विनम्रता और रूढ़िवादी चुनौतियों के प्रति निडरता जैसे विरोधी भावों की युति प्रोफेसर लीला दुबे के व्यक्तित्व में स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।

प्रोफेसर लीला दुबे के अंग्रेजी में लिखे एक आत्मकथात्मक निबंध ‘डूइंग किनशिप एंड जेंडर’ में उन्होंने अपनी मां का उल्लेख करते हुए लिखा है कि वे हमेशा इस बात पर ज़ोर देती थीं कि लड़कियों को कैसे खाना बनाना चाहिए और अपने परिवार की देखभाल करना चाहिए। भारतीय समाज में विवाह की अपरिहार्यता को अपनी किशोरावस्था से ही समझते हुए लीलाजी ने निर्णय ले लिया था कि वे अपना वर स्वयं चुनेंगी। यही कारण रहा कि नागपुर विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान में एमए करने के दौरान वे श्यामाचरण दुबे से मिलीं और अपनी तरफ से उन्हें विवाह का प्रस्ताव भेजा। बीसवीं सदी में भारतीय महिलाओं के जागरण और पुनरुत्थान के उस दौर में परिवार की स्वीकृति के साथ अपने विवाह का ऐसा निर्भीक निर्णय लेना लीलाजी के नारीवादी मानवशास्त्री होने की जन्मजात मौलिकता का परिचायक है।+

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सन् 1945 में प्रोफेसर श्यामाचरण दुबे से विवाह के पश्चात् अपनी पढ़ाई जारी रखते हुए 1946 में लीला जी ने नागपुर विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में एम.ए. किया। इसके बाद उन्होंने सहारनपुर में कॉर्नेल यूनिवर्सिटी इंडिया प्रोग्राम के तहत रिसर्च एसोसिएट के रूप में काम किया, फिर वे वर्ष 1952-53 के दौरान उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद के समाजशास्त्र विभाग में व्याख्याता बनीं। इस बीच अपनी पीएचडी के शोध प्रबंध के लिए लीला दुबे जी ने तत्कालीन मध्य भारत में गोंड समुदाय सहित तीन विशिष्ट आदिवासी समूहों में विशेषतौर पर महिलाओं पर गहन शोध किए। इन आदिवासी समूहों में लैंगिक असमानताओं, महिलाओं की सापेक्ष स्वतंत्रता और एक प्रतिबंधात्मक सामाजिक प्रणाली के दायरे में रह रहीं महिलाओं की अक्षमताओं की बारीकियों और रणनीतियों संबंधी जानकारियों को लीला जी सभी के सामने लेकर आईं। उन्होंने 1954 में अपना शोध प्रबंध जमा किया और 1956 में नागपुर विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। वर्ष 1954 में ही लीला दुबे जी की नियुक्ति सागर विश्वविद्यालय के नृतत्वशास्त्र विभाग में मानद व्याख्याता के रूप में हो गई थी। इसके बाद सन् 1957 से 1960 तक उन्होंने असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और  नृतत्वशास्त्र और समाजशास्त्र विभाग की विभागाध्यक्ष के रूप में अपनी सेवाएं दीं।

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सन् 1961 में उनके एक शोधार्थी ए.आर. कुट्टी को मार्गदर्शन प्रदान करते हुए लीला दुबे जी ने लक्षदीव के मुस्लिमों में मातृवंशीय रिश्तेदारी और विवाह परम्परा पर अति उत्कृष्ट कार्य की शुरुआत की। हालांकि लीलाजी के लिए लक्षदीव जाकर फील्ड वर्क करना थोड़ा मुश्किल था, क्योंकि उस समय एक तो लक्षदीव जाने के लिए कोई नौका सेवा उपलब्ध नहीं थी और तब तक उनके बड़े बेटे मुकुल दुबे का जन्म भी हो गया था। इसी बीच उनके दूसरे बेटे सौरभ दुबे (जो वर्तमान में सेंटर ऑफ एशियन एंड अफ्रीकन स्टडीज़, एल कोलेजियो डी मेक्सिको में इतिहास के प्रोफेसर हैं) का जन्म भी हो गया था। अपने मातृ उत्तरदायित्वों को अनिवार्य रूप से निभाते हुए प्रोफेसर लीला दुबे जी को अपना करियर अपने इर्द-गिर्द ही गढ़ना पड़ा। अतः फील्ड वर्क ए.आर. कुट्टी लक्षदीव में रहकर करते थे और लीला जी सागर में कुट्टी के भेजे आंकड़ों के आधार पर शोध करती थीं। बाद में जब सन् 1969 में लक्षदीव जाने के लिए फेरी सेवा शुरू हुई और उनके दोनों बेटे थोड़े से बड़े हो गए, तब लीला जी स्वयं लक्षदीव गईं। वहां कई वर्षों तक उनके बीच रहकर इस्लामी मातृवंशीय कानूनों और प्रथाओं पर गहन अध्ययन किए। इसी शोधकार्य पर आधारित उनकी ‘मैट्रिलिनी एंड इस्लाम: रिलीजन एंड सोसाइटी इन द लैकेडिव्स’ नामक पुस्तक मानवशास्त्र की अद्वितीय कृति साबित हुई है। इस तरह अपने दोनों बच्चों, पति, परिवार, गृहस्थी, घर, रिश्तों और अध्ययन सभी को संतुलित रूप से निभाने में कामयाब रहीं लीलाजी नारी समाज के लिए एक प्रेरणा स्रोत बनीं।+

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प्रोफेसर लीला दुबे नारीवादी  नृतत्वशास्त्र  को अध्ययन के विषय के तौर पर उस दौर में लेकर आईं थीं, जब शिक्षा में महिलाओं को एक विषय के रूप में अध्ययन करने की कोई सोच भी विकसित नहीं हुई थी। इस विषय की कोई मौलिक पुस्तक तो दूर कोई दिशा और कोई मार्गदर्शन देने वाला तक उपलब्ध नहीं था, लेकिन लीला जी की दूरदृष्टि और संवेदनशीलता ने प्रारंभ में अपने स्वयं के और सम्बद्ध जनों के उदाहरणों के माध्यम से लैंगिक पूर्वाग्रहों की व्याख्या की। उन्होंने उन क्षेत्रों में शोध शुरू किया जिन पर सामाजिक  नृतत्वशास्त्र  के दायरे में किसी का ध्यान नहीं गया था, जिसे पहले पहल केवल जनजातियों के अध्ययन में शामिल किया गया था। प्रोफेसर लीला दुबे ने महिलाओं के अध्ययन की अंतर्दृष्टि की शुरुआत करके मानव विज्ञान के विषय को व्यापक बनाया। लीलाजी ने अपनी मानव विज्ञानी तकनीकी विशेषज्ञता के बल पर नृविज्ञान विषय को महिलाओं के अध्ययन के लिए समृद्ध किया। मुख्यधारा के समाजशास्त्र में महिलाओं के अध्ययन को गंभीरता से रखने में उन्होंने ज़िम्मेदार भूमिका निभाई है।

प्रोफेसर लीला दुबे का नारीवादी दृष्टिकोण न केवल उनके अपने जीवन बल्कि विभिन्न समूहों के मानवशास्त्रीय अध्ययनों से उद्भूत हुआ कहा जा सकता है क्योंकि उन्होंने अपने गहन मानव वैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय शोधों से विविध सामाजिक संबंधों विशेषकर नारीवादी स्थितियों को समझने के लिए एक नवीन अंतर्दृष्टि और सोच प्रदान की। नारीवादी शोध के प्रोफेसर लीला दुबे के तरीके अद्भुत थे। उनके द्वारा किए गए मानवशास्त्रीय शोध एक पारिवारिक ढ़ांचे में सामाजिक परम्पराओं के साथ जीवन का निर्वहन करने वाली नारियों की स्थिति को संदर्भित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रोफेसर लीला दुबे के नारीवादी सामाजिक नृविज्ञान के तरीके उन असंख्य स्थितियों की जांच करने में सहायता करते हैं, जहां महिलाओं को सिर्फ अपनी विनम्रता के भाव के कारण बहुत कुछ सहन करना पड़ता है। प्रोफेसर लीला दुबे ने महिलाओं और उनसे सम्बद्ध अन्य विषयों जैसे रिश्तेदारी, धर्म, विवाह, पर्दा प्रथा, लैंगिकता, वेश्यावृत्ति और जनजातियों जैसे क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करते हुए विशेष गहन अध्ययन किए और इन विषयों को शैक्षणिक स्तर पर शोधकार्य के लिए सामने लाने का बीड़ा उठाया।

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प्रोफेसर लीला दुबे द्वारा स्त्री जाति को लेकर किए गए शोधों और अध्ययनों के कारण ही  नृतत्वशास्त्र  में नारीवादी  नृतत्वशास्त्र  जैसी उपशाखा प्रतिष्ठित की जा सकी है। नारीवादी  नृतत्वशास्त्र  में एक ऐतिहासिक योगदान देने वाली तथा सगोत्रवाद और नारी अध्ययन को लेकर अपने शोध कार्यों के लिए विख्यात प्रोफेसर लीला दुबे जी द्वारा लिखित कई पुस्तकें, शोध पत्र और निबंध नृविज्ञान और समाजशास्त्र विषयों के लिए मील का पत्थर बने। इनमें से एंथ्रोपोलॉजिकल एक्सप्लोरेशन इन जेंडर: इंटरसेक्टिंग फील्ड्स नामक उनकी पुस्तक अत्यधिक प्रसिद्ध है। इसमें उन्होंने नारीवादी विचारों के नृवंशवैज्ञानिक सृजन हेतु लोक कथाओं, लोक गीतों, कहावतों, किंवदंतियों, मिथकों जैसे विभिन्न और अपरंपरागत स्रोतों को आधार बनाते हुए समाज में लैंगिक संबंधों, रिश्तेदारी और संस्कृति के गहन अध्ययनों से निकले निष्कर्षों पर प्रकाश डाला है। उनकी कुछ और बेहद लोकप्रिय पुस्तकों ऑन द कंस्ट्रक्शन ऑफ जेंडर: हिंदू गर्ल्स इन पैट्रिलिनियल इंडिया, विज़िबिलिटी एंड पावर: एसेज़ ऑन वीमेन इन सोसाइटी एंड डेवलपमेंट तथा वीमेन एंड किनशिप: कम्पेरेटिव पर्सपेक्टिव्स ऑन जेंडर इन साउथ एंड साउथ-ईस्ट एशिया ने भारत, मलेशिया, यूगोस्लाविया, ईरान और ब्राजील की सामाजिक-राजनीतिक रिश्तेदारी की व्यवस्थाओं में महिलाओं के   नृतत्व  विज्ञानी संदर्भों को अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य प्रदान किए हैं।

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विश्व समाज में विशेषकर एशियाई देशों की नारियों में स्वयं के अस्तित्व के बारे में जागरूकता की कमी, अपर्याप्तता और अवधारणाओं के बहिष्कार का सूक्ष्म विश्लेषण लीलाजी के नृवैज्ञानिक शोधों में मिलता है। उन्होंने गोत्र और वंश पर आधारित रिश्तेदारी पर किए अपने अद्वितीय शोध द्वारा सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत पितृसत्तात्मक प्रथाओं और सिद्धांतों के बारे में एक अलग दृष्टिकोण स्थापित किया। इसके अतिरिक्त, समाज में स्त्रियों की ताबेदारी की  प्रवृत्ति के पीछे के कारणों में जाति, वर्ग, धर्म जैसे सामाजिक कारकों, भारत में गिरते लिंगानुपात, लिंग चयनात्मक गर्भपात, महिलाओं के खिलाफ बढ़ती हिंसा जैसे कई महत्वपूर्ण विषयों को बड़ी कुशलता से सामने लाने में वे बेहद सफल रही हैं। भारतीय नृविज्ञान में उनके व्यक्तिगत विश्लेषणात्मक कौशल ने आगे चलकर प्रोफेसर लीला दुबे को संरचनावाद और संरचनात्मक नृविज्ञान के सिद्धांतों के प्रणेताओं प्रसिद्ध फ्रांसीसी मानवविज्ञानी और नृवंशविज्ञानी क्लाउड लेवी-स्ट्रॉस तथा तुर्की सामाजिक मानवविज्ञानी नूर यलमन के समकक्ष खड़ा कर दिया है। प्रोफेसर लीला दुबे ने अपने विद्वतापूर्ण प्रयासों के माध्यम से महिलाओं के अध्ययन में अकादमिक विश्वसनीयता लाने में बहुत बड़ा योगदान दिया है।

सन् 1975 में लीलाजी दिल्ली आ गईं थीं और ज्यादातर वहीं रहकर उन्होंने अपने कार्य किए। भारत में नारीवादी अध्ययन की पुरोधा रहीं प्रोफेसर लीला दुबे जी ने वर्ष 1971 से लेकर 1993 तक विविध संगठनों और संस्थानों जैसे भारत सरकार की राष्ट्रीय महिला स्थिति समिति, एसएनडीटी महिला विश्वविद्यालय, मुम्बई की महिला अध्ययन कार्यक्रम सलाहकार समिति, इंडियन काउंसिल ऑफ सोशल साइंस रिसर्च (आईसीएसएसआर), यूनेस्को, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) संयुक्त राष्ट्र संघ, विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन (डब्ल्यूएचओ), एशिया और प्रशांत क्षेत्र के लिए संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक आयोग (ईएससीएपी), आईडब्ल्यूएसी और आईयूएईएस आदि के नामित सदस्य के रूप में सतत कार्य किए। उन्होंने वर्ष 1976 से 1993 तक इंटरनेशनल यूनियन ऑफ एंथ्रोपोलॉजिकल एंड एथनोलॉजिकल साइंसेज (आईयूएईएस) के महिला आयोग की अध्यक्ष और वर्ष 1986 से 1990 तक इंटरनेशनल वीमेंस एंथ्रोपोलॉजी कॉन्फ्रेंस (आईडब्ल्यूएसी) की उपाध्यक्ष के पदों पर अपनी अमूल्य सेवाएं दीं।

प्रोफेसर लीला दुबे जी को उनके उत्कृष्ट नारीवादी नृवैज्ञानिक कार्यों के लिए विभिन्न संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत किया गया। प्रोफेसर लीला दुबे जी को वर्ष 2007 में इंडियन सोशियोलॉजिकल सोसाइटी का लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड तथा वर्ष 2009 में यूजीसी का स्वामी प्रणवानंद सरस्वती पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 20 मई 2012 को दिल्ली में प्रोफेसर लीला दुबे ने अंतिम सांसें लीं।

लेखिका विज्ञान लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैं। उनका जीवन परिचय https://swayamsiddha.co/डॉ-शुभ्रता-मिश्रा/ पर पढ़ा जा सकता है।

© मीडियाटिक

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