इंदु मेहता : ऐसी कॉमरेड जो आज़ादी के लिए आखिर तक लड़ती रहीं

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इंदु मेहता : ऐसी कॉमरेड जो आज़ादी के लिए आखिर तक लड़ती रहीं

छाया: इंदु मेहता

विशिष्ट महिला 

• सारिका ठाकुर 

वे स्वप्नदृष्टा थीं। लेकिन उनका सपना उनका अकेले का नहीं, बल्कि समूची मनुष्यता का सपना था। सपने ही उनका ईंधन भी थे और वे ही उत्पाद भी। बिना थके जीवन भर गोरैया की तरह तिनका-तिनका जोड़कर अपने सपनों को यथार्थ में बदलने की कोशिशें उन्होंने जारी रखीं।

कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (सीपीआई) की कर्मठ कार्यकर्ता इंदु मेहता ने अपनी किशोरावस्था में ही अंग्रेज़ी राज से आज़ादी का इरादा कर लिया था और उसके लिए उन्होंने संघर्षों में हिस्सेदारी भी की। आज़ादी के बाद देश के नवनिर्माण की भी वे सिर्फ़ गवाह ही नहीं रहीं बल्कि बदलाव के लिए अपनी ओर से भी भरसक प्रयत्न करतीं रहीं। गुलाम भारत में वे क्रांतिकारी छात्रा के रूप में मशहूर थीं तो आज़ाद भारत में व्याख्याता और फिर राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता। उनका घर वास्तव में ‘सपनों का घर’ कहा जा सकता है जिसमें जाति या धर्म से बनीं दीवारें और चौखटें नहीं थीं। एक पत्नी के रूप में या फिर माँ के रूप में उन्होंने श्रेष्ठ भूमिका का निर्वहन किया लेकिन न तो वे वैसी पत्नी थीं जैसी आम घरों में होती हैं न ही वे पारम्परिक छवि वाली माँ थीं। उनकी बेटी जया मेहता कहती हैं –“मुझे याद नहीं कभी माँ ने खूब अच्छा-अच्छा पकाकर खिलाया हो, उनका ज़्यादातर वक़्त घर से बाहर ही बीतता था लेकिन मजबूती से उनके साथ होने का अहसास हम लोगों को हमेशा रहता था। हमें कभी ऐसा नहीं लगा कि वे हमारे साथ नहीं रहतीं तो हमें कम प्यार करती हैं।”

दो भाइयों और दो बहनों में सबसे छोटी इंदु जी का जन्म 4 जून 1922 को इंदौर में हुआ। उनके पिता श्री राजाराम पाटकर शिक्षक थे और माँ सुश्री ताराबाई पाटकर गृहिणी थीं। वे बचपन से ही पढ़ने लिखने में तेज थीं। उनकी प्रारंभिक शिक्षा अहिल्याश्रम, इंदौर में हुई थी। छठवीं से उन्हें 30 रुपये महीने का वजीफ़ा मिलने लगा, जो एक बहुत बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है क्योंकि तब उनके पिता का ही वेतन 60 रुपये मासिक था जिससे पूरे परिवार का पालन-पोषण होता था। वजीफ़ा  बंद न हो जाए, इसलिए नन्ही इंदु की माँ इस बात की बहुत फ़िक्र करती थीं कि बेटी का अव्वल आना जारी रहे और घर चलाने में मदद मिलती रहे। इसके लिए वे इस बात का विशेष ख़याल रखती थी कि इन्दु की पढ़ाई में कोई रुकावट न आये। उनके घर में अलार्म घड़ी नहीं थी, लेकिन इंदु सुबह-सुबह उठकर पढ़ाई कर सके, इसके लिए उनकी माँ ने एक तोता पाला। उस तोते को बोलना सिखाया गया – बेबी उठ!!! (बचपन में सभी उन्हें प्यार से बेबी पुकारते थे)  वह तोता भी मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी निभाने लगा। जया को उनकी माँ बताती थीं कि उन्हें उस तोते से बहुत चिढ़ होती थी क्योंकि वो उन्हें कभी चैन से सोने नहीं देता था।  

जब इन्दु पाँच साल की थीं, तब उन्हें निमोनिया हो गया था। उनके डॉक्टर मामा ने सलाह दी कि इंदु को गाना सिखाओ, इससे फेफड़े का व्यायाम होगा। उस समय होल्कर राज सांस्कृतिक रूप से संपन्न था। एक से बढ़कर एक कलाकार इंदौर में मौजूद थे। उन्हीं में एक थे बाबू खां बीन वाले। वे काफ़ी गुणी व्यक्ति थे। सबसे पहले उन्होंने ही इंदु जी को गाना सिखाना शुरू किया। लेकिन दिक्कत ये थी कि बाबू खां को नशे की लत थी। उनके हाथ पैसे आते तो वे तुरंत ही नशे में उड़ा देते थे। इसलिए इन्दु की माँ ने उन्हें तनख़्वाह पर रखने के बजाय ये किया कि वे जब भी  सिखाने आते, उन्हें उसी वक़्त एक बार की मुक़र्रर रकम दे दी जाती। सोचिए कि एक पाँच साल की बच्ची और संगीत के एक उम्रदराज़ उस्ताद का क्या संवाद होता होगा। बाबू ख़ाँ पूछते - बताओ बीबी, तबले का क्या काम होता है?  बच्ची इन्दु जवाब देती - उस्ताद, तबले से ताल मिलाई जाती है। बाबू ख़ाँ कहते - नहीं बीबी, तबले से सुर भी मिलाया जाता है। बोलो, सही है या नहीं? इन्दु कहती कि उस्ताद कहते हैं तो सही ही होगा। बाबू ख़ाँ ख़ुशी से उछल पड़ते और कहते, "वो मारा पापड़ वाले को" और तबले से सरगम निकालकर बताते। इस तरह इन्दु की संगीत की तालीम हुई।कम्युनिस्ट जल्द ही इन्दु की संगीत की प्रतिभा को उस्तादों ने पहचान लिया। कम उम्र में ही उन्हें उनके उस्ताद अपने साथ मंच पर ले जाने लगे। इन्दु के गाने की शैली हीराबाई बड़ोदकर के जैसी थी जो श्रोताओं को बहुत पसंद आती थी। उस्ताद जब इन्दु को लेकर मंच पर प्रस्तुति देने जाते तो वे दूसरों की प्रस्तुतियों के दौरान सो जातीं। उनकी बारी आने पर उन्हें जगाया जाता तब वे जातीं। देर रात तक कार्यक्रम होने के कारण वे अक्सर सो जातीं तो उस्ताद उन्हें गोद में उठाकर घर तक लाया करते।

वर्ष 1940 में होलकर साइंस कॉलेज में उनका इंटरमीडिएट में दाख़िला हुआ था। श्री आनन्द सिंह मेहता भी उसी कॉलेज के छात्र थे। वे सीपीआई के छात्र संगठन 'ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन' की इंदौर शाखा के सचिव भी थे। एआईएसएफ़ देश का पहला विद्यार्थी संगठन था जिसकी स्थापना 1936 में हुई थी। अंग्रेज़ों  के विरुद्ध जन आक्रोश उन दिनों चरम पर था। इन्दु जी भी स्टूडेंट फेडरेशन से जुड़ गयीं। वहीं दोनों की मुलाक़ात और दोस्ती हुई। कॉलेज का वो  दौर इंदु जी के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। आन्दोलन के जूनून में पढ़ाई का दायरा केवल कॉलेज की किताबों तक सीमित नहीं रहकर देश-दुनिया और राजनीति-समाज तक बढ़ता गया। इसके उलट संगीत का दायरा शास्त्रीय संगीत से ‘वन्दे मातरम’ और देश प्रेम के गीतों तक सिमटता गया, हालांकि इनके प्रशंसक भी कम नहीं थे। स्वाभाविक रूप से, अनेक सभाओं की शुरुआत इन्दु जी के देश प्रेम के गान से होती थी।

अब इन्दु जी का वक़्त लम्बी-लम्बी बैठकों और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ योजनाएं बनाने में बीतने लगा। क्रांतिकारियों की सोहबत में रहने के कारण वे अंग्रेज़ी प्रशासन की नज़र में आ गईं। पुलिस वाले उनके पिताजी को समझाने गए, "अपनी बेटी को रोकिये, वह क्रांतिकारियों के साथ घूमती है जो ठीक नहीं है, वह गिरफ़्तार हो जाएगी।" जवाब में उनके पिता ने कहा, "वह बीस साल की युवती है, हम उसे घर में कैद करके नहीं रख सकते, आप जो करना चाहें आप करें। उसे जो करना होगा, वो करेगी।" आखिर एक रात करीब दो बजे पुलिस इन्दु को गिरफ्तार करने घर पहुँच ही गई। पिताजी ने पुलिस अधिकारियों से कहा, "आप इतनी रात क्यों गिरफ़्तार कर रहे हैं, सुबह कर लें। देर रात इस तरह गिरफ्तार करने का क्या अर्थ है?"  इस पर पुलिस अधिकारी ने कहा, " हमें आधी रात के बाद ही इनकी गिरफ़्तारी का आदेश मिला है। दिन में गिरफ्तार करेंगे तो इंदौर शहर में दंगा हो जाएगा। "

इस घटना से उनकी लोकप्रियता का अंदाजा लगाया जा सकता है। तीन महीने जेल में रहने के बाद उन्हें टायफायड हो जाने के कारण रिहा कर दिया गया। 8 अगस्त 1942 को मुंबई के गवालिया टैंक (जिसे बाद में अगस्त क्रांति मैदान कहा जाने लगा) से गांधी जी ने ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ का आगाज़ किया। उस सभा में इंदौर से स्टूडेंट्स फेडरेशन से चार लोग ही गए थे जिसमें आनंद मेहता भी थे और इंदु पाटकर भी ।

आनंद सिंह जी होल्कर कॉलेज से केमिस्ट्री की पढ़ाई कर रहे थे। उन्होंने बम बनाना सीख लिया था। बंबई से आने के बाद क्रांतिकारियों के फ़ैसले के मुताबिक वे भूमिगत होकर मेरठ पहुँच गए और इंदु जी भी वहां पहुँच गईं। मेरठ उस समय क्रांतिकारियों की सरगर्म गतिविधियों के लिए जाना जाता था। इंदौर से इंटरमीडिएट करने के बाद  इंदु जी  ने मेरठ से ही स्नातक, स्नातकोत्तर और एल.एल.बी की पढ़ाई पूरी की। उसी दौरान आनंद जी से उनका विवाह भी हुआ। रूढ़िवादी समाज में विजातीय विवाह होना बहुत बड़ी बात थी लेकिन इंदु जी या आनंद जी के परिवार से इस विवाह का किसी प्रकार का विरोध नहीं हुआ।  

आज़ादी मिली तो देशप्रेमियों और क्रांतिकारियों की भूमिका बदल गई। इंदु जी भी कमला राजा कन्या महाविद्यालय, ग्वालियर में व्याख्याता बन गईं और नई पीढ़ी को आधुनिक प्रगतिशील संस्कारों के साथ बड़ा करने  जुट गईं। वर्ष 1950 में बड़ी बेटी जया और 1953 में कल्पना का जन्म हुआ। दो साल बाद  1955 में इंदु जी वापस इंदौर आ गईं और मोती तबेला गर्ल्स डिग्री कॉलेज में बतौर प्रिंसिपल उन्होंने काम संभाला।

इंदौर में रहते हुए ही उनकी मुलाकात प्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता कॉमरेड होमी दाजी से हुई। यह उनके जीवन का दूसरा अहम पड़ाव था। वे वाम विचारधारा से प्रभावित तो प्रारंभ से ही थीं, कॉमरेड होमी दाजी से जुड़ने के बाद उसे क़रीब से जानने  का अवसर उन्हें मिला। सरकारी नौकरी होने के कारण वे खुलकर पार्टी को सहयोग नहीं दे सकती थीं लेकिन पार्टी की विचारधारा को जानना, समझना और अपने जीवन मूल्य के तौर पर स्थापित करते हुए परोक्ष रूप से सहयोग करना, इस अवधि में उनके लिए अहम रहा। दरअसल आज़ादी के बाद देश के विकास का जो स्वप्न क्रांतिकारियों ने देखा था, उसकी यथार्थ परिणति बहुत उत्साहजनक नहीं थी। गुलाम भारत की सभी बुराइयाँ आज़ादी के बाद के देश में भी रिस कर आ गई थीं। ऐसे में इन्दु जी को ही नहीं, देश के अनेक लोगों को फिर से लगा कि आज़ादी और आज़ादी के मूल्यों को बचाने के लिए  फिर से लड़ाई लड़नी ज़रूरी है - इस बार अंग्रेज़ों से नहीं बल्कि देश के भीतर बैठे मौक़ापरस्त मुनाफ़ाख़ोरों से।

वर्ष 1962 के लोकसभा चुनाव की तैयारियों में उन्होंने पार्टी की भरपूर मदद की। घर में पोस्टर और पर्चियां बनते, नारे लिखे जाते, साथ ही कई अनौपचारिक बैठकें भी होतीं। चुनाव ख़त्म हुए तो सरकारी नौकरी में होते हुए राजनीतिक गतिविधियों में संलिप्तता का आरोप लगाकर इंदु जी का तबादला भोपाल कर दिया गया। वे महारानी लक्ष्मीबाई कन्या महाविद्यालय की प्रिंसिपल बनकर आ गईं। लेकिन उन्हें लग रहा था कि अब नौकरी में रहते हुए वे सत्ता की कारगुजारियों का उग्र विरोध नहीं कर सकेंगी जिसकी ज़रूरत उन्हें शिद्दत से महसूस हो रही थी। वरिष्ठ पत्रकार लज्जाशंकर हरदेनिया बताते हैं कि आपातकाल के दिनों संजय गाँधी भोपाल आये थे। उनका भव्य स्वागत सत्कार होना था। उस वक़्त राज्य सरकार के जिन सचिव के पास इस काम की ज़िम्मेदारी थी, वे इन्दु मेहता को जानते नहीं थे। उन्होंने कॉलेज की प्रिंसिपल होने के नाते इन्दु जी को आदेश पत्र लिख भेजा कि आप अपने कॉलेज से कुछ लड़कियाँ संजय गाँधी के स्वागत के लिए भेजने की व्यवस्था करें। इन्दु जी इस आदेश से आग बबूला हो गईं और उन्होंने अपनी किसी भी छात्रा को भेजने से साफ़ इंकार कर दिया। उसके बाद उनका तबादला ग्वालियर कर दिया गया। वर्ष 1975 अनेक मायनों में राजनीतिक उथल-पुथल से भरा हुआ था। आपातकाल में सरकारी दबाव बढ़ते जाने से इन्दु जी की बेचैनी बढ़ती गई। वे तुरंत नौकरी छोड़ इंदौर आ गईं और कम्युनिस्ट पार्टी की पूर्णकालिक सदस्य बन गईं। अब वाम विचारधारा को आगे बढ़ाना उनके जीवन का प्रमुख उद्देश्य बन गया।

तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल का समर्थन करने वाले गिने-चुने लोग थे। राजनीतिक दलों में सीपीआई ने दक्षिणपंथी राजनीति के उभार का ख़तरा देखते हुए सरकार के इस फ़ैसले का समर्थन किया था। इंदु जी व्यक्तिगत तौर पर आपातकाल की विरोधी थीं लेकिन अपनी पार्टी के वैचारिक पक्ष से पूरी तरह असहमत भी नहीं थीं। इंदु जी के बरक्स आनंद सिंह जी प्रारंभ से ही समाजवादी रहे। उस दौरान घर में वैचारिक चर्चा अक्सर बहस में बदल जाती थी। अच्छी बात यह थी कि इस प्रबुद्ध दंपत्ति के आपसी संबंध इन मतभेदों के कारण प्रभावित नहीं हुए।

वर्ष 1975 से 1985-86 तक वे राजनीतिक मुद्दों पर लगातार समाचार पत्र ‘नईदुनिया’ को पत्र लिखती थीं जो पाठकों के पत्र स्तम्भ में प्रकाशित हुआ करता था। वर्ष 1977 से वर्ष 1980 तक तो उनका प्रत्येक सप्ताह लगभग एक पत्र प्रकाशित होता था। धीरे-धीरे उनके पत्र काफी लोकप्रिय होते चले गए। स्थानीय से लेकर अंतरराष्ट्रीय मुद्दों तक लगभग दो-ढाई सौ पत्र उन्होंने नईदुनिया को लिखे और वे सभी प्रकाशित हुए। छोटी-छोटी जगहों पर पुराने लोगों के पास उनके पत्रों की कतरनों की फ़ाइलें भी संभाली हुई मिलती थीं। उनकी बेटी जया मेहता की उन चिट्ठियों को एकत्र कर एक पुस्तक के रूप में निकट भविष्य में प्रकाशित करने की योजना है।

अखिल भारतीय शांति एवं एकता संगठन (एप्सो) का उदय 1951 में हुआ था। यह संगठन अमेरिकी साम्राजयवाद की साज़िशों के ख़िलाफ़ लोगों को जागरूक करने का और जनता में उग्र राष्ट्रवाद की जगह विवेकपूर्ण शांति का सन्देश फ़ैलाने का काम करता था। इन्दु जी राजनीतिशास्त्र की प्राध्यापक रह ही चुकी थीं। पार्टी से जुड़ने के बाद इन्दु जी एप्सो से भी जुड़ीं। पार्टी प्रतिनिधि मंडल के सदस्य के रूप में उन्होंने रूस और बुल्गारिया की यात्राएं भी कीं। इसके अलावा वे इंडो सोवियत कल्चरल सोसायटी (इस्कस) की भी सक्रिय सदस्य थीं।

उनसे कॉलेज में पढ़ी हुईं अनेक महिलाएँ अभी भी उनकी याद करके बताती हैं और अखबारों में स्मृति लेख लिखती हैं कि किस तरह इन्दु मेहता मैडम ने उनकी ज़िंदगी बदल दी। अपनी अनेक विद्यार्थियों के समय पूर्व विवाह की ख़बर पाकर इन्दु जी उनके घर चली जातीं चाहे वो दूसरे शहर में ही क्यों न हो, और उनके माता-पिता को समझातीं कि लड़की को पढ़ाई पूरी करने दीजिए। इतनी जल्दी उसकी शादी मत कीजिए। अनेक माँ-बाप माने भी और उन लड़कियों का जीवन एक अलग ही दिशा में आगए बढ़ा। वे पार्टी के सदस्यों को भी मार्क्सवाद पढ़ाने का काम करती थीं। इसके लिए वे प्रदेश के सुदूर गाँवों की यात्रा करतीं और मज़दूरों-किसानों के बीच से निकले कॉमरेडों को समाजवाद क्या है, इसके लिए लड़ना क्यों ज़रूरी है और इसकी लड़ाई कैसे लड़ी जानी चाहिए -सरल भाषा में पढ़ातीं। जो लोग उनकी पार्टी क्लास में पढ़े थे, वे अभी भी उन्हें प्रखर वक्त और स्पष्ट समझ वाली अच्छी और सख़्त शिक्षिका के रूप में याद करते हैं।

वर्ष 1985 में आनंद जी कैंसर से पीड़ित हो गए। इससे इंदु जी का सार्वजानिक जीवन का दायरा सिमट गया। बाद में आनंद जी तो  स्वस्थ हो गए लेकिन इंदु जी स्वयं अल्ज़ाइमर (विस्मृति रोग) की शिकार हो गईं। यह उनके परिवार के लिए बहुत कठिन समय था। लगभग दो दशकों तक विस्मृति इस पीड़ादायक स्थिति में रहने के बाद वर्ष 2002 में उन्होंने इस दुनिया से विदा ले ली, लेकिन इंदौर के इतिहास और साथी कॉमरेडों के दिल में उनका नाम हमेशा अमिट रहेगा।

सन्दर्भ स्रोत: इंदु मेहता की पुत्री जया मेहता से सारिका ठाकुर की बातचीत और उनके द्वारा उपलब्ध सामग्री

सहयोग: विनीत तिवारी

© मीडियाटिक 

Comments

  1. Dr s k bhandari 21 Oct, 2023

    How impressive.next and than next generation continuing great thinking process,but not imposing on others..

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