पीरियड्स के दौरान महिलाओं को छुट्टी के लिए याचिका, 24 फरवरी को होगी सुनवाई

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पीरियड्स के दौरान महिलाओं को छुट्टी के लिए याचिका, 24 फरवरी को होगी सुनवाई


नई दिल्ली। माहवारी के दौरान छात्राओं और कामकाजी महिलाओं के लिए मासिक धर्म के दौरान छुट्टी की मांग करते हुए एक जनहित याचिका दायर की गई थी, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय 24 फरवरी को सुनवाई करेगा। यह याचिका अधिवक्ता शैलेंद्र मणि त्रिपाठी ने लगाई है। उल्लेखनीय है कि 16 फरवरी को स्पेनिश संसद ने माहवारी के दौरान महिलाओं को छुट्टी देने की मंज़ूरी दे दी है। स्पेन ऐसा करने वाला यूरोप का पहला देश बन गया है। इसके तहत अगर महिलाएं माहवारी के समय अस्वस्थ महसूस करती हैं या दर्द में हैं तो वह तीन से पांच दिन की छुट्टी ले सकती हैं।

• जैविक प्रक्रिया को लैंगिकता में कैसे बांध सकते हैं

दुनिया के कुछ देशों में ये कदम इसलिए उठाया जा रहा है ताकि महिलाओं को काम करने के लिए बराबरी के मौके मिलें। महिलाएं सुरक्षा को लेकर और देर से कार्यालय आने-जाने में ज्यादा मुश्किलें झेलती हैं, इसलिए कार्यस्थल पर महिलाओं के लिए ज़्यादा से ज़्यादा लैंगिक बराबरी बनाने की मांग रखने वाले इन छुट्टियों की मांग कर रहे हैं। माहवारी अवकाश के मामले में कई कंपनियां अपनी नीतियां बदल रही हैं। वहीं, दुनिया भर में भी इसे लेकर बहस जारी है। महिलाओं का मानना है कि ये उनकी जरूरत है, जबकि कुछ लोगों के लिए ये छुट्टी लेने का बहाना या फिर मज़ाक का विषय है। शैलेंद्र मणि त्रिपाठी के वकील विशाल तिवारी कहते हैं- हमने इस मुद्दे को मानव अधिकार के तहत उठाया है। महिलाओं को सवैतनिक अवकाश मिलना चाहिए, क्योंकि ये दिन उनके लिए नाजुक होते हैं। इस दौरान महिलाओं का शरीर काम का ज़्यादा बोझ नहीं उठा सकता। मैं ये नहीं कह रहा कि ये अवकाश ज़रूरी हो, लेकिन सुविधा रहेगी तो ज़रूरतमंद महिलाएं इसका लाभ ले सकेंगी।
 
•  पीरियड्स में हार्ट अटैक के बराबर होता है दर्द

इस बहस में पुरुषों के अलावा अलग-अलग राय रखने वाली महिलाएं भी शामिल हैं। महीने के पांच दिन महिलाओं के लिए भारी होते हैं, विज्ञान भी इस बात को मानता है। यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के एक अध्ययन के मुताबिक, पीरियड्स के दौरान महिलाओं को दिल का दौरा पड़ने जितना दर्द होता है। उस वक़्त पेट में मरोड़ उठना, जी मिचलाना, उल्टियां और चिड़चिड़ापन होता है। ये सब दिक्कतों की गंभीरता हर स्त्री में अलग-अलग होती है।
 
•  महीने में 2 दिन काम नहीं कर पाती महिलाएं: सर्वे

ब्रिटिश मेडिकल एसोसिएशन के जर्नल बीएमजे में प्रकाशित एक अध्ययन में शामिल नीदरलैंड की 32 हज़ार महिलाओं में से करीब 81 फीसदी का कहना था कि पूरे साल में माहवारी के दौरान होने वाली तकलीफ से उनके कार्य करने की क्षमता में करीब 23 दिन के काम की कमी आई। या यूं कहें कि ये महिलाएं हर महीने 2 दिन पीरियड्स के दर्द से परेशान रहीं। इस सर्वे के मुताबिक 14% ने माना माहवारी के दौरान उन्होंने काम से छुट्टी ली। बाकियों का कहना था कि दर्द में होने के बावजूद उन्होंने अपना काम जारी रखा। क्योंकि उन्हें पता है कि उनकी छुट्टी का उनके काम पर असर पड़ेगा। इसी तरह ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न स्थित ‘एच आर सॉफ्टवेयर प्रोवाइडर विक्टोरियन वुमंस ट्रस्ट एंड सर्कल इन’ के सर्वे के मुताबिक 70% महिलाएं अपने अधिकारी से पीरियड्स के बारे में बात करने में सहज महसूस नहीं करतीं। 83% ने माना इसका उनके काम पर नकारात्मक असर पड़ा। यह सर्वे 2021 में 7 सौ महिलाओं के बीच किया गया था।

•  माहवारी अवकाश की अवधारणा रूस की देन

भले ही अब दुनिया भर की कंपनियां कामकाजी महिलाओं के लिए माहवारी के दिनों में छुट्टी को लेकर नीति बना रही हैं, लेकिन यह अवधारणा नई नहीं है। दुनिया भर में कम से कम एक सदी पहले से माहवारी अवकाश की अवधारणा अलग-अलग रूप में मौजूद रही है। सबसे पहले सोवियत संघ ने इस मुद्दे पर पहल की। वहां 1922 में, जापान में 1947 में और ताइवान और इंडोनेशिया में 1948 में इस मुद्दे पर राष्ट्रीय नीति बनाई गई। यह नीति दरअसल  कारखाने में काम करने वाली महिलाओं के लिए बनी थी, उन्हें माहवारी के दौरान तीन दिन का सवैतनिक अवकाश मिलता था। इस छुट्टी के पीछे मकसद महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य को बचाना था ताकि देश के सभी नागरिक स्वस्थ रहें।

•  नफ़ा-नुकसान देखती कंपनियां

माहवारी अवकाश हो या प्रसूति अवकाश इस पर कंपनियों का नजरिया नफा-नुकसान वाला ही होता है। साक्षात्कार के करते समय अक्सर लड़कियों से पूछा जाता कि ‘आप शादी तो नहीं करने वाली हैं?’ अगर शादीशुदा होती हैं तो उनसे पूछा जाता है कि ‘आप फैमिली तो प्लान नहीं कर रहीं। प्रबंधन के मन में पीरियड्स वाली बात भी होती है। उन्हें ये भी लगता है कि लड़की है तो इस पर घर की जिम्मेदारियां भी होंगी। ऐसे में लड़कियों को नौकरी देते वक्त कंपनियां अपने नफा-नुकसान को ध्यान में रखते पुरुष अभ्यर्थियों को नियुक्त करना पसंद करती हैं।

•  पुरुषों के लिए निराशाजनक होंगी ये छुट्टियां?

इस मुद्दे पर नोएडा स्थित वेंडिंग अपडेट्स इंडिया प्रा. लि. के अरुण गोयल कहते हैं कि अगर पीरियड लीव पॉलिसी आएगी तो पुरुष कर्मचारियों के लिए वह निराशाजनक हो सकती है। उनका मानना है कि पूरे दिन की छुट्टी के बजाए महिलाओं को वर्क फ्रॉम होम देना बेहतर विकल्प हो सकता है, लेकिन ये सुविधा इस बात पर भी निर्भर करती है कि उनका कामकाज किस तरह का है। बीते 17 साल से मानव संसाधन प्रबंधन का काम कर रहीं वंदना सिन्हा इस मामले पर कहती हैं, वैसे नौकरी देते समय पुरुष और महिला उम्मीदवारों के लिए एक जैसे ही सवाल होते हैं। अधिकांश कंपनियां काबिलियत ही तलाशती हैं। लेकिन महिला को नौकरी देते समय कंपनियां ज्यादा सतर्क रहने की कोशिश करती हैं। इस चक्कर में महिला अभ्यर्थी से शारीरिक क्षमता से लेकर पर्सनल सवाल तक किए जाते हैं।

•  भारत में कम हुई कामकाजी महिलाओं की भागीदारी

भारत में 2011 में कार्यस्थल पर महिलाओं की भागीदारी जहां लगभग 25 फीसदी थी, वहीं साल 2020 में ये भागीदारी घटकर 18 फीसदी पर पहुंच गई। साल 2021 में इसमें थोड़ा सुधार आया और महिलाओं की भागीदारी बढ़कर 19.23% हुई। वर्ल्ड बैंक का डेटा भी इस बात की पुष्टि करता है कि 2010-2020 तक में कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत 29 से घटकर 19% पहुंच गया।

•  पुरुष छुट्टी में बराबरी चाहते हैं तो घर-बच्चों की जिम्मेदारी लेंगे?

गोरखपुर यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के सहायक प्राध्यापक विश्वंभर नाथ प्रजापति कहते हैं- यह अच्छी पहल है। जो कंपनियां इस पॉलिसी पर काम कर रही हैं, वो काफी सकारात्मक सोच रखती हैं। असल में देखें तो ये बराबरी का ही तरीका है। महिलाओं का अस्तित्व माहवारी से जुड़ा है। फिर उसे खारिज या अनदेखा नहीं किया जा सकता है। एक अच्छे समाज का मतलब होता है कि हर किसी का अधिकार सुरक्षित रहे। आप स्त्री से यहां बराबरी की बात नहीं कर सकते हैं। अगर आप ऐसा करेंगे फिर आप उससे घर और बच्चे की ज़िम्मेदारी की उम्मीद मत कीजिए। अगर पुरुषों को पीरियड्स होते तो वो चुप नहीं बैठते। पुरुष इसे सिर्फ लैंगिकता में बांधकर देखेगा तो उसे दिक्कत होगी। लेकिन वो स्वस्थ समाज और स्त्री के प्रति अपनी जिम्मेदारी की नजर से देखें और स्वीकारें तो कहीं किसी तरह की गड़बड़ी नज़र नहीं आएगी।

•  क्या माहवारी का दर्द सच में बहाना होता है?

पीरियड्स से संबंधित लक्षण हर लड़की और महिला में अलग होते हैं। कई सर्वेक्षणों में 80 से 85% महिलाओं ने माना कि उन्हें पीड़ादायक पीरियड्स होते हैं। लेकिन समस्या केवल इतनी ही नहीं है। मदरहुड हॉस्पिटल की स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. इंदुजा बताती हैं कि माहवारी के पहले-दूसरे दिन महिलाएं या लड़कियां कई दिक्कतों का सामना करती हैं। ज्यादा दर्द, हैवी ब्लीडिंग, उल्टी, क्रैम्प, ब्रेस्ट टेंडरनेस, मूड स्विंग, हेडेक, माइग्रेन जैसे कई लक्षण महिलाओं में देखने को मिलते हैं। डॉ. इंदुजा कहती हैं- ये कोई बहाना नहीं है। हमारे पास ऐसे मामले भी आते हैं, जिनमें महिलाओं को इतना तेज दर्द होता है कि उन्हें इंजेक्शन देना पड़ता है। सीवियर पेन का कारण एंडोमेट्रियोसिस फाइब्रॉयड होता है। वैसे, पहला दिन अधिकांश लड़कियों के लिए मुश्किल वक्त होता है। वहीं, बहुत सारी लड़कियां शुरुआत के दो दिन दर्द निवारक दवाओं का सहारा लेती हैं। लेकिन लंबे समय तक उनका उपयोग हानिकारक होता है।

•  माहवारी अवकाश की नीति महिलाओं पर पड़ सकती है भारी

साल 2016 में इटली ने इससे जुड़े एक बिल का प्रस्ताव दिया। उस प्रस्ताव के अनुसार माहवारी का मेडिकल सर्टिफिकेट दिखाने पर महिलाओं को तीन दिन का सवैतनिक अवकाश मिलेगा, लेकिन प्रस्ताव आगे ही नहीं बढ़ पाया। यूनिवर्सिटी ऑफ सिडनी की एसोसिएट प्रोफेसर एलिजाबेथ हिल का इस नीति को लेकर कहना है कि- क्या यह महिलाओं को किसी तरह की आज़ादी देगा? क्या ये नीतियां कार्यस्थल पर हमारे शरीर से जुड़ी असलियत को पहचानेंगी और उनके लिए लाभकारी होंगी? मासिक धर्म के दौरान छुट्टी का प्रावधान करने वाली दुनिया भर की नीतियों का गंभीरता से अध्ययन कर चुकी एलिजाबेथ कहती हैं कि क्या यह एक ऐसी नीति है, जो हमें छोटा महसूस कराएगी, शर्मिंदगी का कारण बनेगी? क्या ये महिलाओं को रोजगार देने के लिए हतोत्साहित करने वाली तो नहीं?

इस बहस में भी ये बात सामने आई है कि ये नीति महिलाओं के लिए उल्टी पड़ सकती है। अगर कंपनियों को महिलाओं को अलग से अवकाश देना पड़े तो किसी भी महिला को नौकरी देने से पहले कई बार सोचेंगी। ये नीति कार्यस्थल पर महिलाओं के लिए मौके और कम कर देगी। हालांकि, सीनियर एचआर कंसल्टेंट वंदना सिन्हा कहती हैं कि माहवारी अवकाश देने से कंपनी के कामकाज पर असर नहीं पड़ेगा। महिलाएं अपने काम को लेकर ज्यादा गंभीर होती हैं। वो समय प्रबन्धन बेहतर करती हैं। माहवारी अवकाश की जगह वर्क फ्रॉम होम के सवाल पर वंदना कहती हैं कि काम और महिला के स्वास्थ्य को देखते हुए वर्क फ्रॉम होम या छुट्टी तय की जानी चाहिए।

•  एक नई बहस की शुरुआत

कई महिलाओं का भी मानना है कि माहवारी अवकाश की यह नीति सही नहीं है। पत्रकार बरखा दत्त ने वाशिंगटन पोस्ट के लिए ओपिनियन पीस में लिखा, ‘मैं फेमिनिस्ट हूं। महिलाओं को पीरियड के लिए एक दिन की छुट्टी देना बेतुका विचार है। इस लेख में दत्त ने ये तर्क दिया था कि पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं के लिए ऐसे ही बहुत चुनौतियां है। माहवारी अवकाश महिलाओं को न सिर्फ कमज़ोर बनाएगा, बल्कि उन्हें कई अवसर से दूर कर देगा। जिन महिलाओं को एंडोमेट्रियोसिस के कारण बहुत ज्यादा दिक्कत होती है, उन्हें मेडिकल लीव मिलनी चाहिए, न कि अलग से पीरियड लीव।’

•  शर्म की वजह से महिलाएं नहीं लेती छुट्टी

जापान और दक्षिण कोरिया में महिलाओं को माहवारी के लिए छुट्टी मिलती है, लेकिन वे इसका इस्तेमाल नहीं करती हैं। जापान में 1947 में लेबर राइट्स कंसर्न के तहत पीरियड लीव पॉलिसी आई थी। जापान की एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक 1965 में केवल 26% महिलाओं ने इस छुट्टी का इस्तेमाल किया। लेकिन वक़्त के साथ ये आंकड़ा और कम हो गया। वहां की सरकार ने साल 2017 में एक सर्वे कराया, उसमें ये बात सामने आई कि सिर्फ 0.9% महिलाओं ने ही माहवारी अवकाश के लिए आवेदन दिया था। दक्षिण कोरिया में भी यही चलन देखने को मिल रहा है। 2013 के एक सर्वेक्षण में 23.6% दक्षिण कोरिया की महिलाओं ने इस छुट्टी का इस्तेमाल किया, जबकि 2017 में यह दर गिरकर 19.7% हो गई। दोनों ही देशों में महिलाएं माहवारी के दौरान मिलने वाली छुट्टी इसलिए नहीं लेतीं क्योंकि उन्हें माहवारी से जुड़ी संस्कृति और कार्यस्थल पर भेदभाव का डर होता है। दक्षिण कोरिया में पुरुषों के अधिकार के लिए काम करने वाले ग्रुप 'मैन ऑफ कोरिया' के प्रमुख सुंग जे-गी ने साल 2012 में ट्विटर पर इसे लेकर बेहद आपत्तिजनक पोस्ट किया। सुंग ने अपने ट्वीट में लिखा- ‘तुम (महिलाओं) को खुद पर शर्म आनी चाहिए। जब देश की जन्मदर दुनिया में सबसे कम है तो आप पीरियड्स को लेकर इतना हंगामा क्यों कर रही हैं?’

•  महिलाओं के आंदोलन के बाद बिहार में शुरू हुआ अवकाश

भारत में माहवारी अवकाश की शुरुआत बिहार से हुई। साल 1992 में लालू प्रसाद की सरकार महिलाओं के लिए विशेष अवकाश नीति लेकर आई। इसके तहत महिलाओं को 2 दिन का सवैतनिक अवकाश मिलता है। इसके लिए महिलाओं ने 32 दिन तक आंदोलन किया था, जिसके बाद उन्हें यह अधिकार मिला। बिहार में नियम बनने के सात साल बाद 1997 में मुंबई स्थित मीडिया कंपनी 'कल्चर मशीन' ने 1 दिन की छुट्टी देने की शुरुआत की। साल 2020 में ज़ोमैटो ने माहवारी अवकाश देने का ऐलान किया। इस समय भारत में 12 कंपनियाँ यह अवकाश दे रही हैं जिसमें बायजू, स्विगी, मलयालम मीडिया कंपनी मातृभूमि, वेट एंड ड्राई, मैगज्टर जैसी कंपनी शामिल हैं। केरल सरकार ने इसी साल जनवरी में छात्राओं को ध्यान में रखकर हर यूनिवर्सिटी में माहवारी और प्रसूति अवकाश देने की घोषणा की है। अब केरल की छात्राओं को माहवारी के दौरान 2 दिन की छुट्टी मिलेगी। उल्लेखनीय है कि गैर सरकारी संस्था डासरा की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में हर साल लगभग 2.3 करोड़ लड़कियां पीरियड के दौरान होने वाली दिक्कत और सुविधा के अभाव में स्कूल छोड़ देती हैं।    

•  अमेरिका में महिलाओं को प्रसूति अवकाश भी नहीं मिलता

माहवारी अवकाश कि अवधारणा बहुत कम जगहों पर ही है। जापान, ताइवान, जांबिया, साउथ कोरिया, इंडोनेशिया और अब स्पेन ऐसे देश हैं, जहां पर महिलाओं को माहवारी के दिनों में छुट्टी मिलती है। वहीं अपने आपको सुपर पावर देश कहने वाले अमेरिका में माहवारी क्या, प्रसूति अवकाश भी नहीं मिलती। वहां मां को सिर्फ 10 हफ्ते की छुट्टी मिलती है और उस छुट्टी की तनख्वाह नहीं मिलती। ये सुविधा भी उन्हीं महिलाओं को मिलती है, जो कंपनी में एक साल से अधिक फुलटाइम वर्कर रही हों। ऑस्ट्रेलिया की एक कंपनी ने 2021 में पीरियड्स, मोनोपॉज और मिसकैरेज लीव की शुरुआत की। विश्व स्वास्थ्य संगठन कम से कम 16 हफ्ते के प्रसूति अवकाश की सिफारिश करता है। अमेरिका 38 सदस्य वाले ओईसीडी देशों में एकमात्र देश है, जिसने बिजनेस और कॉरपोरेशन द्वारा अपने कर्मचारियों को पेड मैटरनिटी लीव देने के लिए कोई कानून नहीं बनाया है। भारत की फूड कंपनी जौमेटो ने 2020 में महिला और ट्रांसजेंडर्स के लिए सालाना 10 दिन का माहवारी अवकाश शुरू किया था।

नीति बनाना एक अस्थायी उपाय है, लेकिन समाज का नज़रिया बदलना ज़्यादा अहम काम है। जिन देशों ने इसकी शुरुआत की है, उनमें से  ज़्यादातर जगह महिलाएं ये सुविधा न के बराबर ले रही हैं इसलिए कि उनके सहयोगी उन्हें कमतर न आंकते हैं या हेय दृष्टि से देखते हैं। कहीं उनसे मेडिकल सर्टिफिकेट मांगा जाता है। ये बातें महिलाओं के लिए आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाने जैसी है, इसलिए नीति के साथ नज़रिया बदलने की जरूरत है। याचिकाकर्ता शैलेंद्र हो या प्रोफेसर विश्वंभरनाथ प्रजापति - सबने एक सुर में माना कि मसला माहवारी अवकाश का नहीं, बल्कि नज़रिए का है। महिलाएं घर-बाहर चौबीस घंटे काम करती हैं, ऐसे में सिर्फ दो छुट्टियों के कारण उनके साथ उन्हें गैर बराबरी का व्यवहार नहीं किया जा सकता। औरतों को समझने के लिए हमें सबसे पहले उनके अस्तित्व को स्वीकारना होगा। हम जब ऐसा कर लेंगे तो उनसे जुड़ी दिक्कतों को समझने में आसानी होगी। हमारे लिए फिर ये एक या दो दिन की छुट्टी की बात न होकर सेहत से जुड़ा मुद्दा होगा। एक सच्चाई ये भी है कि महिलाओं के हक में जब भी कोई नियम बना है, पुरुषों के एक तबके ने हमेशा ही उसका विरोध किया है। चाहे वो दहेज उन्मूलन, संपत्ति का अधिकार या अब माहवारी अवकाश ही क्यों न हो।

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-संविधान का अनुच्छेद 14 कहता है कि किसी भी नागरिक का असमानता के आधार पर हक़ नहीं छीना जा सकता। स्त्री जैविक रूप से असमान है। पुरुष को स्त्री जैसे पीरियड्स पेन का सामना नहीं करना पड़ता है इस आधार पर स्त्री को पुरुष के समान समझना हमारी संवैधानिक भूल है।

शैलेंद्र मणि त्रिपाठी, याचिकाकर्ता  
 
-कामकाजी महिलाओं की संख्या कम होना एक अलग मुद्दा है, उस पर नियम बनाना सरकार का काम है। माहवारी अवकाश को जेंडर की नजर से देखना गलत है। ये प्राकृतिक प्रक्रिया है, पुरुषों को इसे मुद्दा नहीं बनाना चाहिए। ये महिलाओं को मिलने वाले फ्री टिकट या आरक्षित सीट जैसा मुद्दा नहीं है।

विशाल तिवारी, वकील, सुप्रीम कोर्ट  

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