कर्नाटक हाईकोर्ट की एक अहम टिप्पणी एक बार फिर शादी, तलाक और ‘क्रूरता’ जैसे संवेदनशील मुद्दों पर बहस का केंद्र बन गई है। अदालत ने एक महिला की तलाक याचिका खारिज करते हुए कहा है कि हिंदू कानून में विवाह कोई साधारण सिविल कॉन्ट्रैक्ट नहीं, बल्कि एक पवित्र और शाश्वत बंधन है, जिसे “स्वर्ग में रचा गया और धरती पर निभाया गया” माना जाता है।
यह टिप्पणी उस वक्त आई जब हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट के उस आदेश को बरकरार रखा, जिसमें महिला को हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13(1)(ia) के तहत तलाक देने से इनकार कर दिया गया था।
क्या है पूरा मामला?
यह मामला एक ऐसे दंपती से जुड़ा है जिनकी शादी वर्ष 2012 में हिंदू रीति-रिवाजों के साथ हुई थी। अदालत के रिकॉर्ड के मुताबिक, महिला शादी के बाद महज 21 दिन ही अपने पति के घर रही। इसके बाद वह मायके चली गई और पति के साथ दोबारा रहने नहीं लौटी। महिला ने फैमिली कोर्ट में याचिका दाखिल कर आरोप लगाया कि उसके पति और ससुराल वालों ने उससे और उसके माता-पिता से अतिरिक्त दहेज की मांग की और उसे मानसिक व शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया। उसने यह भी कहा कि वह आर्थिक रूप से कमजोर है, जबकि उसका पति नौकरी करता है और करीब 30 हजार रुपये प्रति माह कमाता है। इन आधारों पर महिला ने तलाक के साथ-साथ स्थायी गुजारा भत्ता (Permanent Alimony) की भी मांग की थी
फैमिली कोर्ट का फैसला और हाईकोर्ट में अपील
फैमिली कोर्ट ने जनवरी 2018 में महिला की याचिका खारिज कर दी थी। कोर्ट का कहना था कि महिला द्वारा लगाए गए आरोप असहनीय क्रूरता की श्रेणी में नहीं आते, जो तलाक के लिए जरूरी शर्त है। इसके बाद महिला ने इस आदेश को कर्नाटक हाईकोर्ट में चुनौती दी। मामले की सुनवाई जस्टिस जयंत बनर्जी और जस्टिस उमेश एम। अडिगा की डिवीजन बेंच ने की।
हाईकोर्ट की सख्त और भावनात्मक टिप्पणी
महिला की अपील खारिज करते हुए हाईकोर्ट ने हिंदू विवाह की धार्मिक और दार्शनिक अवधारणा पर विस्तार से टिप्पणी की। अदालत ने कहा, "हिंदू कानून के तहत विवाह को एक पवित्र, शाश्वत बंधन माना जाता है, न कि कोई सिविल कॉन्ट्रैक्ट। यह ऐसा रिश्ता है, जिसे स्वर्ग में तय किया जाता है और धरती पर निभाया जाता है।" कोर्ट ने विवाह संस्कार का उल्लेख करते हुए कहा कि अग्नि को साक्षी मानकर वर-वधू जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को साथ निभाने की शपथ लेते हैं। ""धर्मेचा, अर्थेचा, कामेचा, मोक्षेचा' का उच्चारण यह दर्शाता है कि पति-पत्नी सत्य, समृद्धि, प्रेम और आध्यात्मिक मुक्ति के रास्ते पर साथ चलने का वचन देते हैं। यह सिर्फ सामाजिक समझौता नहीं, बल्कि ईश्वर द्वारा निर्धारित एक दिव्य साझेदारी है।"
महिला पर भी की कड़ी टिप्पणी
अदालत ने इस मामले में महिला के रवैये पर भी सख्त टिप्पणी की। कोर्ट ने कहा, "ऐसा प्रतीत होता है कि याचिकाकर्ता ने विवाह को बच्चों का खेल समझ लिया। ऐसा भी लगता है कि उसने सिर्फ अपने माता-पिता के घर जाकर पढ़ाई जारी रखने के लिए आरोप लगाए।" हालांकि कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि हर मामला अपने तथ्यों पर तय होता है, लेकिन इस केस में लगाए गए आरोप कानूनी तौर पर इतने मजबूत नहीं थे कि तलाक दिया जा सके।
क्रूरता क्या है? अदालत की कानूनी व्याख्या
हाईकोर्ट ने दो टूक कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13(1)(ia) के तहत तलाक तभी दिया जा सकता है, जब यह साबित हो जाए कि पति या उसके परिवार ने महिला को ऐसी क्रूरता का शिकार बनाया, जिसे सहना असंभव हो। "जब तक याचिकाकर्ता यह सिद्ध नहीं कर देती कि उसे असहनीय क्रूरता झेलनी पड़ी है, तब तक तलाक का अधिकार नहीं बनता।" कोर्ट ने यह भी कहा कि फैमिली कोर्ट ने दोनों पक्षों के साक्ष्यों पर विस्तार से विचार किया था और उसका निष्कर्ष पूरी तरह सही था। "इस अदालत को फैमिली कोर्ट के फैसले में दखल देने का कोई कारण नजर नहीं आता।"
सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से अलग रुख?
दिलचस्प बात यह है कि हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में 'irretrievable breakdown of marriage' यानी विवाह के पूरी तरह टूट जाने को भी तलाक का आधार माना है। यहां तक कि मानसिक क्रूरता की परिभाषा को भी व्यापक किया गया है। लेकिन कर्नाटक हाईकोर्ट का यह फैसला दिखाता है कि हर अदालत हर मामले में तलाक को आसान रास्ता नहीं मानती, खासकर तब जब आरोपों की ठोस पुष्टि न हो।
क्यों अहम है यह फैसला?
यह फैसला कई मायनों में महत्वपूर्ण है। यह हिंदू विवाह की धार्मिक और सांस्कृतिक अवधारणा को फिर से रेखांकित करता है। यह संदेश देता है कि तलाक कोई औपचारिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि आखिरी विकल्प होना चाहिए। यह भी साफ करता है कि सिर्फ आरोप लगाना काफी नहीं, उन्हें कानूनी तौर पर साबित करना जरूरी है। साथ ही यह फैसला उन मामलों में एक मिसाल बन सकता है, जहां बिना ठोस सबूतों के क्रूरता के आधार पर तलाक मांगा जाता है।



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