मद्रास हाईकोर्ट ने कहा है कि भारतीय विवाह प्रणाली को पुरुष वर्चस्ववाद की छाया से निकलकर समानता और आपसी सम्मान के साथ बढ़ना चाहिए। क्योंकि शादी पुरुषों को पत्नी पर निर्विवाद अधिकार नहीं देती। पतियों को महिला के धैर्य को सहमति नहीं समझना चाहिए।
जस्टिस एल विक्टोरिया गौरी की बेंच 1965 में विवाहित एक बुजुर्ग दंपती के बीच वैवाहिक विवाद से जुड़े मामले में सुनवाई कर रही थी। याचिका एक महिला ने लगाई थी, जिसके पति को IPC आईपीसी की धारा 498ए के तहत पत्नी के प्रति क्रूरता का दोषी ठहराया गया था। कोर्ट ने सुनवाई के बाद 80 साल के शख्स को बरी किए जाने का निचली अदालत का फैसला रद्द कर दिया। कोर्ट ने कहा कि खराब शादीशुदा जीवन में महिलाओं की बेमतलब की सहनशीलता ने पुरुषों की पीढ़ियों को उन पर कंट्रोल करने और उन्हें अपने अधीन रखने का साहस दिया है।
पति ने 18 साल महिला को अलग रहने मजबूर किया, यह क्रूरता
महिला ने कोर्ट में बताया था कि शादीशुदा जीवन के दौरान, उसके पति ने अवैध संबंध बनाए। जब उसने विरोध किया, तो उसने उसके साथ मारपीट और उत्पीड़न किया और उसे झूठे मामले में फंसाकर तलाक लेने की धमकी भी दी। महिला ने दलील दी कि पति ने पूजा के लिए इस्तेमाल होने वाले फूलदार पौधे काट दिए, देवी-देवताओं की तस्वीरें फेंक दीं। फोन नहीं करने देता था। पारिवारिक समारोहों में जाने से मना कर दिया। 16 फरवरी 2007 को उसे भोजन व भरण-पोषण से वंचित कर दिया। इस तरह उसे मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया गया। महिला ने आरोप लगाया कि उसके लिए अलग रसोई बना दी गई। पति ने उसे चाकू मारने की भी कोशिश की थी, लेकिन वह उसे कमरे में बंद करके भाग निकली। बाद में, पति के परिवार ने उसके खाने में जहर मिलाने की भी धमकी दी।
इसके बाद महिला ने शिकायत दर्ज कराई। निचली अदालत ने पति को धारा 498ए के तहत दोषी ठहराया। हालांकि, फैसले को पलट दिया गया, क्योंकि कोई चश्मदीद नहीं था, केवल सुनी-सुनाई बातों पर आधारित सबूत थे। न ही दहेज की कोई मांग की गई थी।हाईकोर्ट ने पति को 6 महीने के कारावास और 5 हजार रुपए के जुर्माने की सजा सुनाई। जुर्माना न भरने पर पर एक महीने के कारावास की सजा भी दी।



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