इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पति को स्त्रीधन के 10.54 लाख रुपये लौटाने का दिया गया आदेश रद्द कर दिया है। कोर्ट ने कहा कि गहनों व सामानों की अपुष्ट फोटोकॉपी रसीदें दिखाकर स्त्रीधन की वसूली नहीं की जा सकती। वह भी तब, जब तलाक की कोई अर्जी लंबित नहीं हो। फोटो स्टेट दस्तावेजों पर आधारित डिक्री न्यायिक अनुशासन की घोर अवहेलना है। यह आदेश न्यायमूर्ति अरिंदम सिन्हा और न्यायमूर्ति अवनीश सक्सेना की खंडपीठ ने बांदा निवासी पति की अपील स्वीकार करते हुए दिया है।
पति ने चित्रकूट के पारिवारिक न्यायालय की ओर से पत्नी की अर्जी स्वीकार कर 10.54 लाख रूपये की वसूली के आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। कोर्ट ने पति की ओर से पूर्व में अदा किए सात लाख रुपये की धनराशि व शेष रकम की वसूली के लिए शुरू हुई निष्पादन कार्यवाही पर भी रोक लगा दी है। कोर्ट ने कहा कि जब मूल डिक्री ही विधिसम्मत नहीं है, तो उसका निष्पादन स्वतः अवैध है। ऐसी डिक्री शून्य के समान है। इसे लागू नहीं किया जा सकता।
पत्नी का दावा था कि 24 नवंबर 2014 को पति व ससुराल पक्ष के लोगों ने उसे मारपीट कर जेवरात हड़प लिए। वह स्त्रीधन है। उसे दिलाया जाना चाहिए। वहीं, पति की ओर से दलील दी गई कि घटना के दिन वह बांदा में नहीं, बल्कि मुंबई में था। इस तथ्य को पत्नी ने ट्रायल कोर्ट में स्वीकार किया है। इसके अलावा यह भी दलील दी गई कि पति पहले ही छह लाख रुपये अदा कर चुका था और 15 मई 2025 को एक लाख रुपये का अतिरिक्त डिमांड ड्राफ्ट भी कोर्ट में प्रस्तुत कर चुका है।
कोर्ट ने सुनवाई के दौरान पाया कि पत्नी की ओर से गहनों की पेश की गईं रसीदें सिर्फ फोटोकॉपी थीं, जिन्हें न तो कोर्ट में साबित किया गया और न ही उनका कोई गवाह पेश किया गया। ऐसी स्थिति में इन रसीदों को द्वितीयक साक्ष्य नहीं माना जा सकता। कोर्ट ने पारिवारिक न्यायालय के फैसले को रद्द करते हुए हिंदू विवाह अधिनियम का जिक्र भी किया। कहा कि धारा 27 केवल तलाक या वैवाहिक विवाद के दौरान संपत्ति विवाद निपटाने के लिए है। अकेले स्त्रीधन की मांग के लिए उसका उपयोग ‘कानूनी छल’ के समान है। लिहाजा, 10.54 लाख रुपये की स्त्रीधन वापसी की डिक्री न सिर्फ असांविधानिक है, बल्कि पारिवारिक न्यायालय के क्षेत्राधिकार के बाहर पारित किया गया आदेश है।
सन्दर्भ स्रोत : विभिन्न वेबसाइट
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