प्रदेश की रंगभूमि की पराक्रमी महिलाएं

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प्रदेश की रंगभूमि की पराक्रमी महिलाएं

टेलीविजन, सिनेमा और रंगमंच

• मुकेश शर्मा

यह एक स्थापित तथ्य है कि समस्त कलाओं का विकास राज्याश्रय में ही हुआ है। चाहे वह राजशाही हो, सामंती व्यवस्था हो या प्रजातांत्रिक व्यवस्था। सबने कलाओं के संवर्धन व संरक्षण में अपना योगदान दिया है। आज़ादी से पहले ग्वालियर और इंदौर मध्यप्रदेश के दो बड़े शहर रहे हैं और दोनों शहरों में मराठों का शासन था। जबलपुर कलचुरी राजाओं की राजधानी रहा है। भोपाल में मुगलों का शासन था। भोपाल नवाब की हठधर्मिता के कारण यहां 1 जून 1949 को तिरंगा फहराया गया था। ग्वालियर और इंदौर के मुकाबले भोपाल एक बहुत छोटी सी रियासत थी।

ग्वालियर और इंदौर के मराठों ने अपने राज्य में सभी कलाओं को प्रोत्साहित किया। यूं भी मराठी नाटकों का दीर्घकालिक इतिहास है। इसीलिए इन दोनों शहरों ने मराठी नाट्य परंपरा को जीवित रखा। लेकिन भोपाल में प्रदर्शनकारी कलाओं, विशेषत: नाटक की कोई परंपरा ही नहीं थी। नाटक को सामाजिक दृष्टि से भी बुरा माना जाता था। इसीलिए आज़ादी से पहले भोपाल के रंगमंच का इतिहास ढूंढे नहीं मिलता। कहा जाता है कि शाहजानाबाद इलाके के परी बाज़ार में महिलाओं का बाजार लगता था। उसे मीना बाज़ार कहते थे। इसमें ख़रीद-फरोख्त का काम महिलाएं ही करती थी, मर्दों को इसमें जाने की मनाही थी। इसी बाजार में शाम के समय मनोरंजन के लिए कव्वाली, बेंतबाजी, मुशायरा आदि के आयोजन होते थे । नाटक के नाम पर एक दूसरे की नकल उतार कर मज़ा लिया जाता था, इसमें भी महिलाएं ही पुरुषों की भूमिका करती थीं।

1 नवंबर 1956 को मध्यप्रदेश राज्य का गठन हुआ और भोपाल को उसकी राजधानी बनाया गया। नागपुर, जबलपुर, ग्वालियर, इंदौर आदि शहरों से प्रशासनिक अधिकारी ट्रांसफर होकर भोपाल आए। उन्हें इसी परी बाज़ार के इलाके में ठहराया गया था। इसमें हिन्दीभाषी कर्मचारियों के साथ ही बड़ी संख्या में मराठी व बांग्लाभाषी भी थे। इनकी हिन्दी पर भी अच्छी पकड़ थी। बंगाली समाज ने परी बाज़ार के पास एक खुली जगह पर दुर्गा पूजा की शुरुआत की थी। इसी दुर्गा उत्सव में बंगाली के साथ ही हिंदी नाटक के प्रदर्शन की शुरुआत हुई। इसमें सबसे प्रमुख भूमिका निभाई श्री शशांक मुखर्जी व उनकी धर्मपत्नी प्रज्ञा मुखर्जी ने। प्रज्ञा जी तीन दशकों तक रंगमंच में सक्रिय रही। इस दौरान उन्होंने नाटकों के साथ ही अनेक फिल्मों व टीवी धारावाहिकों में भी अभिनय किया था।

इनके साथ ही श्रीमती इंदिरा भादुड़ी नागपुर से भोपाल आईं। वह भी बांग्ला समुदाय की एक महत्वपूर्ण सदस्य रही हैं। इनकी बेटियों जया व रीटा ने भी बाल कलाकार के रूप में रंगमंच पर कदम रखा। जया जी अब जया बच्चन है और रीटा जी रीटा वर्मा। एक ने फिल्मों में यश व धन कमाया तो दूसरी ने शिक्षण के साथ ही शौकिया रंगमंच का अपना सफर जारी रखा। रीटा जी तो अभी भी थिएटर से जुड़ी हैं, बल्कि अब तो ज़्यादा सक्रियता के साथ जुड़ी हैं।

इसी दौर में इलाहाबाद में शिक्षित व जबलपुर में ब्याही पापिया दासगुप्ता का भोपाल के रंगमंच पर पदार्पण हुआ। उनका बांग्ला व हिन्दी, दोनों भाषाओं पर समान रूप से अधिकार था, इसीलिए रंग जगत में उन्होंने जल्दी ही अपनी पहचान स्थापित कर ली। “खामोश अदालत जारी है ” नाटक मैं लीला बेनरे व “व्यक्तिगत” नाटक में महिला की भूमिका ने उन्हें एक मंजी हुई अभिनेत्री के रूप में स्थापित कर दिया था। पिछले वर्ष उन्हें शासन द्वारा शिखर सम्मान से सम्मानित किया गया।

भोपाल में अनेक कलाकारों ने अभिनय का ककहरा रंगमंच के पहले आकाशवाणी के नाटकों से सीखा है। कुछ महिला कलाकारों ने तो आकाशवाणी के अलावा मंच पर कभी अभिनय किया ही नहीं। इंदिरा मल्होत्रा व उनकी छोटी बहन डॉली मल्होत्रा ,दोनो इसी श्रेणी में आती है। प्रो आशा मिश्रा भी पहले सिर्फ रेडियो नाटकों में ही भाग लेती थीं लेकिन बाद में उन्होंने मंच पर भी अभिनय किया है।

भोपाल से पहले आकाशवाणी केंद्र की स्थापना इंदौर में हो चुकी थी। वहां से प्रसारित होने वाले नाटकों में एक स्थापित नाम था इन्दु आनंद का। उन्होंने मंच पर भी अभिनय किया था। अब बात इंदौर की चल पड़ी है तो वहां की अन्य कलाकारों का जिक्र भी कर दिया जाए। जैसा कि ऊपर कह चुका हूं ,इंदौर में मराठा शासक होने के कारण मराठी नाटकों के मंचन की समृद्ध परंपरा रही है। बाबा डीके ने इसे आगे बढ़ाया। निर्मला दानी उनके नाटकों की महत्वपूर्ण कलाकार रही है। उनके अभिनय को देखने का मुझे भोपाल में अवसर मिला है।

उनके अलावा नीरजा आप्टे ,डॉक्टर वसुंधरा कालेवार भी सशक्त अभिनेत्रियां रही है। वर्तमान में प्रतीक्षा बेलसरे, तन्वी अकोलकर, श्रुतिका जोग कलमकर ,मराठी नाटकों के साथ ही हिन्दी नाटकों में भी सक्रिय है। इंदौर में सक्रिय वरिष्ठ रंगकर्मी साथी शरद शबल ने बताया की पुण्यबाला सहगल (भानु शंकर मेहता की बहन ),मायारानी मेहरोत्रा, रंजीत सतीश, लेखा मेहरोत्रा भी हिंदी नाटकों में न केवल सक्रिय रहीं, बल्कि इन्होंने इंदौर रंगमंच में विशेष योगदान दिया है।

शरद से ही पता चला की हिंदी की सुप्रसिद्ध लेखिका ममता कालिया, जो विवाह से पहले ममता अग्रवाल थीं, उन्होंने भी इंदौर के मंच पर अपनी अभिनय की पताका फहराई है। इंदौर की ही एक और ख्यातिनाम कलाकार हैं सुमन धर्माधिकारी, जो इंदौर से लेकर मुंबई तक हिंदी मराठी नाटकों में अपनी पहचान बना चुकी हैं। सुमन को अपने एक पात्रीय नाटक “धार हिन्दतेआकाशी “से बहुत ख्याति मिली ,इसे वे हिन्दी व मराठी दोनों भाषाओं में करती थीं। इसके हिंदी संस्करण “सारा आकाश “का शो हमने प्रेक्षक संस्था के अंतर्गत स्थानीय रविंद्र भवन में आयोजित किया था। यह एक पात्रीय नाटक पूरे 2 घंटे का था। इसमें मध्यांतर भी होता था।

ऐसी ही एक और प्रतिभा है, जिसकी रंग यात्रा इंदौर से शुरू हुई और भोपाल में परवान चढ़ी ।यह  है वरिष्ठ रंगकर्मी  ज्योत्सना मेहता। अपने नगर प्रेम के चलते मैं उन्हें भोपाल का ही मानता हूं। ग्वालियर की एक कलाकार, कब दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में दाखिल हो गई, किसी को पता ही नहीं चला।  और पता चल भी गया हो तो उस वक्त एनएसडी को कितने लोग जानते थे। उस लड़की का नाम था मीना विलियम्स, उन्होंने सन 1963 में एनएसडी में प्रवेश लिया था । उन्होंने मोहन राकेश के नाटक “आषाढ़ का एक दिन ” मे मल्लिका का किरदार बहुत ही सशक्त रूप से निभाया था। उनकी आगे की रंग यात्रा मेरे लिए अनजानी ही है।

ग्वालियर में भी मराठी रंगमंच की दीर्घकालीन परंपरा रही है उनमें निर्मला देशमानकर, जया खांडेकर, रेखा खंडेकर ,शांति श्रीवास्तव, अंजलि, वंदना दुबे उस दौर की स्थापित अभिनेत्रियाँ थी। ग्वालियर की दो और कलाकारों से हमारा परिचय तब हुआ जब वह भारत भवन रंगमंडल के लिए चुनी गईं – सरोज शर्मा और आभा चतुर्वेदी।  दोनों ने रंगमंडल के नाटकों में खूब  काम किया और खूब नाम कमाया। रंगमंडल के बंद हो जाने पर सरोज ने भोपाल को ही अपना कर्म क्षेत्र बनाया और आभा ने मुंबई की राह पकड़ ली, और वही की होकर रह गई। हालांकि दोनों ने ही फिल्मों और धारावाहिकों में जमकर काम किया ,आज भी कर रही हैं ,और एक सशक्त अभिनेत्री के रूप मे अपनी एक अलग पहचान बना चुकी हैं।

यह बता पाना तो ज़रा मुश्किल है कि कुमुद चासकर एनएसडी 1961 में भोपाल से गई थीं या एनएसडी से पास होने के बाद भोपाल आई थीं, लेकिन यह निश्चित तौर पर कहूंगा कि वे भोपाल के मॉडल स्कूल में पढ़ाती थी। फिर पति विनायक चासकर – जो कि एनएसडी 1962 मे गए थे, के साथ मुंबई चली गई।

भोपाल की रंग कर्मियों की बात आगे भी करेंगे, बल्कि बीच-बीच में करते ही रहेंगे। पहले विदिशा जैसे कस्बे की बात कर ली जाए। शरद शबल बताते हैं कि 1982 में कविता भट्टाचार्य व सविता भार्गव ने अभिनय की शुरुआत विदिशा से ही की थी। उसके  नाट्य समूह में आज की सुप्रसिद्ध गायिका नीलांजना वशिष्ठ, रंजना ताम्रकार ,नीरा मुले आदि ने संगीत में योगदान दिया था। बाद मे सविता भार्गव ने विभा मिश्रा के साथ अनेक नाटकों में अभिनय किया। भोपाल में होने वाली फिल्म/  धारावाहिकों में भी उन्होंने अपने अभिनय की धाक जमाई है। मेरा सौभाग्य है कि उन्होंने मेरे नाटक” खामोश अदालत जारी है ” में बनारे की भूमिका बहुत ही प्रभावशाली तरीके से निभाई थी।

अन्य छोटे कस्बों व शहरों की महिला रंगकर्मियों के बारे में जानने की मैंने बहुत कोशिश की परंतु सफलता नहीं मिली। 1990 के दशक मे इंदौर से एक और कलाकार भोपाल आई थी। यह तो नहीं मालूम कि इंदौर में उन्होंने कौन-कौन से नाटकों में काम किया  था, लेकिन भोपाल में लगभग सभी बड़े और नामी निर्देशकों के साथ उन्होंने बहुत काम किया और बहुत नाम कमाया। जब मैं हज़ार चौरासी की मां में, मां की भूमिका के लिए सशक्त अभिनेत्री की तलाश कर रहा था ,तब जावेद जैदी ने उनके नाम का सुझाव दिया था, बल्कि उनसे मिलाने भी ले गए थे। ये थीं पुष्पनीर जैन, जो सिरेमिक आर्टिस्ट के तौर पर भी वो बहुत ख्याति अर्जित कर चुकी थीं।

रंग जगत में पुष्पनीर के साथ एक विशेषण और जुड़ा था – धाकड़ कलाकार। उनकी इस छवि से आक्रांत मैं जावेद के साथ उनसे मिलने गया था। मुझे यकीन नहीं था कि वे मान जाएंगी, क्योंकि मैं मुंबई से 13 साल बाद आकर नाटक कर रहा था। इस बीच वे भोपाल में एक सेलिब्रिटी का स्टेटस पा चुकी थी। लेकिन उन्होंने बड़ी सहजता से मेरा प्रस्ताव मान लिया। उस शो के बाद उनकी शोहरत में चंद सितारे और जुड़ गए थे। एक दिन पता चला कि उन्होंने आत्महत्या कर ली है। मैं कई दिनों तक इस दुख से उबर नहीं सका।

जबलपुर की महिला रंग कर्मियों की जानकारी लेने जब मैंने मित्र हिमांशु राय से संपर्क किया तो उन्होंने 30 -40 कलाकारों की लंबी फ़ेहरिस्त मुझे थमा दी। जबलपुर को संस्कारधानी भी कहा जाता है। जिस शहर में 1886 में आर्या नामक महिला ने “मर्चेंट ऑफ वेनिस “नाटक का हिंदी अनुवाद किया हो उसे संस्कारधानी बनने का पूरा हक है भी। यहाँ आज़ादी के बाद के नाटककारों में हीरा देवी चतुर्वेदी और रूपवती किरण का नाम बड़े आदर से लिया जाता है।

हीरा देवी चतुर्वेदी का एकांकी संग्रह  है “रंगीन पर्दा ” जिसमें रंगा सियार ,भूल भुलैया ,बड़ी बहू ,अदृश्य दीवार आदि नाटक संकलित है। सामाजिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि पर लिखे गए इनके नाटकों में मध्य वर्ग की स्थिति और अवस्था का चित्रण है। श्रीमती किरण का एकांकी “पुनर्मिलन ” दिल्ली से सन 1969 में प्रकाशित हुआ था। जबलपुर में गैर व्यावसायिक तौर पर नाटक के प्रदर्शन का चलन 40 के दशक में शुरू हो चुका था। ज़ाहिर है इस दौरान अनेक नाटकों में महिला रंग कर्मियों ने सक्रिय भूमिका निभाई होगी।

मेरेलिन खुशाल ,रानी जोसेफ, शकुंतला पाठक, डॉर्मेंट सिस्टर, सिंधु ताई गडकरी, कुंभोजकर बहनें ,मीना चोलकर, रवि राय चौधरी, बसंती सोनी, मंजू दत्ता, साधना उपाध्याय, तापसी नागराज, मोना पांडे, गीता रानी दास, उपाधि बैस, स्वाति मोदी, आरती राजोरिया, प्रतिभा समैया, कुमुद पटेल, रश्मि धारिया,ज्योति दुबे, प्रगति पांडे, मोहिनी नायक, उपासना सिंहदेव, इंदु सूर्यवंशी, आशा तिवारी, शोभा उड़कुड़े, स्वाति दुबे ,प्रियंका ठाकुर कुछ प्रमुख नाम हैं।

इस सूची में वरिष्ठतम से एकदम युवतर सहित  तीन पीढ़ियाँ शामिल है। शोभना मोदी चटर्जी भारत भवन के रंगमंडल में चुनी जाने वाली जबलपुर की पहली कलाकार रही है।। शोभा आज भी निर्देशन में सक्रिय है। जबलपुर में देश का पहला घूम सकने वाला (रिवाल्विंग) मंच है, जहां पिछले सौ सालों से रंगमंच की परंपरा रही है। जिस शहर में नाट्य लेखकों की एक लंबी फ़ेहरिस्त हो, वहां से कोई लड़की राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय न पहुंचे, ऐसा हो नहीं सकता। शुरुआत में जानकारी के अभाव में भले ही वे न जा पाई हों परंतु बाद में स्वाति दुबे, अन्नपूर्णा सोनी, नेहा सराफ ने एन एस डी में जबलपुर के रंगमंच को पहचान दिलाई।

अन्नपूर्णा व नेहा तो बाद में मुंबई चली गईं और वहां नाटक के साथ ही फिल्मों में भी सक्रिय हैं। स्वाति दुबे ने जबलपुर को ही अपना कार्यक्षेत्र बनाया। समागम रंगमंडल में कार्य करते हुए उन्होंने राष्ट्रीय ख्याति के अनेक नाटक किए हैं और अभी भी कर रही हैं। यही नहीं वे बेहतरीन लघु फ़िल्मों का निर्माण, निर्देशन व उसमे अभिनय भी कर रही है। इस तरह वह अपनी माटी का कर्ज चुका रही हैं। इनके अतिरिक्त सिल्की जैन भार्गव, सुनयना अग्रवाल, कुमुद पटेल, साक्षी केसरी व जेनिफ़र मिस्त्री भी मायानगरी में रंगकर्म मे रमी हुई हैं।

एक बार फिर भोपाल लौट चलें। ऊपर बता चुका हूँ कि नवाबी दौर में यहां नाटक करना अच्छा नहीं माना जाता था। नाट्य समीक्षक रामप्रकाश त्रिपाठी ने एक किस्सा सुनाया था। ग्वालियर के एक ए ए खान प्रगतिशील विचारों के पत्रकार थे। अपने बच्चों को वह खेलकूद, संगीत और नाटक आदि के लिए हमेशा प्रोत्साहित करते रहते थे। उनकी बेटी सुरैया खान हमीदिया कॉलेज में पढ़ती थी और सांस्कृतिक कार्यक्रम मे बढ़ चढ़कर हिस्सा लेती थी। साठ के दशक मे खान साहब ने एक नाटक तैयार किया और पॉलिटेक्निक सभागार में उसका शो रखा।

नाटक में महिला कलाकारों का मंच पर काम करना रूढ़िवादी विचारधारा के लोगों को नागवार लगा । उन्होंने नाटक के बाद खान साहब को सबक सिखाने की तैयारी कर ली। कुछ लोगों को उसकी भनक लग गई और वो नाटक खत्म होते ना होते खान साहब और उनके कलाकारों को पीछे के रास्ते से अपने संरक्षण में बाहर निकाल कर ले गए ,वरना बलवा होने की पूरी संभावना थी। लेकिन बाद में स्थिति में बहुत परिवर्तन आया। आज अनेक मुस्लिम महिलाएं रंगमंच में अभिनय के साथ ही फ़िल्म निर्माण भी कर रही हैं।

1970 के दशक में इरफ़ाना शरद ( प्रख्यात व्यंग्यकार शरद जोशी की पत्नी ) ने इस रूढ़िवादी सोच को चुनौती दी और मंच के साथ ही रेडियो नाटकों में भाग लिया। वे स्कूल में पढ़ाती थीं और वहां भी बच्चों को नाटक सिखाती थीं। उनकी बेटी बानी शरद ने भी नाटकों में अभिनय किया और बाद में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में प्रवेश के लिए चुनी गई। इरफ़ाना जी रेडियो नाटकों और मंच पर भी अक्सर मेरी मां की भूमिका में हुआ करती थी। इस प्रकार उनका मातृतुल्य  स्नेह मुझे हमेशा ही मिलता रहा। उनसे अंतिम मुलाकात आकाशवाणी मुंबई के स्टूडियो में एक नाटक की रिकॉर्डिंग के दौरान हुई थी।

इनके साथ ही उस दौर में चन्द्रा रानी सक्सेना,  सुधा पाटनकर,सुधा भंडारी, उषा चौधरी, रीटा वर्मा भी सक्रिय रही हैं। इन महिला कलाकारों ने ही वर्तमान रंगकर्म में नींव के पत्थर का काम किया है। इन सब वरिष्ठ रंगकर्मयों से प्रोत्साहित होकर अनेक युवा प्रतिभाशाली अभिनेत्रियों ने मंच पर कदम रखा। इनमें प्रमुख हैं बानी शरद, नमिता सेनगुप्ता, रमलजीत कौर, चारु बाला शर्मा खरे, सुखविंदर कौर, संध्या जैन, सोनामणि चटर्जी, अफ़रोज खान, कृष्णा दवे मेहता, रूपाली वालिया, अनुपमा वालिया और प्रभा शर्मा।

1980 के दशक में भारत भवन रंगमंडल के गठन से रंगमंच में क्रांतिकारी परिवर्तन आया। इसमें भोपाल की प्रभा शर्मा दिल्ली की विभा मिश्रा के साथ ही बहुत से कैजुअल आर्टिस्ट के लिए व्यावसायिक रंगमंच के दरवाज़े खुल गए। रंजना, मीना सिद्धू, माधुरी दीक्षित इनमें प्रमुख है। रंगमंडल के बंद होने के बाद विभा मिश्रा ने टोली नाट्य संस्था बनाई। गंभीर रूप से बीमार होने के बावजूद अपनी लगन व मेहनत से विभा ने बाद के वर्षों में भोपाल को अनेक प्रतिभाशाली कलाकार दिए।

रंगमंडल की महिला कलाकारों ने सही अर्थों में उस दौर की एकदम युवा कलाकारों के लिए प्रतिमान स्थापित किए। नतीजे में भोपाल के साथ ही प्रदेश के रंगमंच में महिला रंग कर्मियों की बाढ़ सी आ गई। 90 के दशक और 21वीं सदी के प्रारंभ में लगभग हर नाटक में एक दो नई अभिनेत्रियों की आमद होती गई। मंच पर लंबी पारी खेलते हुए कुछ महिला रंगकर्मी अब भी सक्रिय हैं जिनमें प्रमुख हैं प्रीति झा तिवारी, नीति श्रीवास्तव ,रीना सिन्हा, प्रमिला सिंह ,शालिनी गुप्ता ,कुसुम शास्त्री, स्वस्तिका चक्रवर्ती, महुआ चटर्जी ,रंजना ,ज्योति सावरीकर, विभा श्रीवास्तव, निधि दीवान, ज्योति दुबे, सुमिता श्रीवास्तव, कीर्ति सिन्हा,शिवांगी पवार, ज्योति खरे, सीमा मोरे, तृप्ति चौधरी, बिशना चौहान, रूपा शाही, रश्मि गोल्यां और रश्मि आचार्य।

पिछले चार-पांच वर्षों में अनेक नवांकुर प्रतिभाशाली कलाकारों ने भोपाल के रंगमंच पर दस्तक दी है, जिनमें प्रमुख है पूजा मालवीय, खुशबू पांडे, देवांशी सोनी सिन्हा, आस्था जोशी, सोनम उपाध्याय, आकांक्षा ओझा, शिवानी, अपूर्वा मुक्तिबोध, निमिषा वर्मा, श्रेया सिंह, प्रिया सिंह ,स्वर्णिमा,आदि से प्रदेश के रंगमंच को बहुत उम्मीदें हैं। भूमिका दुबे, सोनाली और इंदिरा तिवारी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षित होकर आजकल मुंबई में थिएटर के साथ ही फिल्मों व सीरियल में सक्रिय हैं। अभी हाल ही में रिलीज हुई एक वेब सीरिज़ में इंदिरा के अभिनय की बहुत तारीफ़ हो रही है।

इंदौर के रंग जगत में प्रसिद्ध आशा कोटिया ने बाल रंगमंच के क्षेत्र में बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किया है उनका हाल ही में निधन हो गया है, उन्नति व्यास ने भी इंदौर रंगमंच पर बहुत काम किया वह भी अब हमारे बीच नहीं है। भोपाल में वैशाली गुप्ता ने बाल रंगमंच में बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किया है उनके ज़िक्र के बिना यह आलेख अधूरा रहता।

नाटक की बात हो तो कालिदास की नगरी को भूलना मुमकिन नहीं। उज्जैन की रंगभूमि पर भी मराठा संस्कृति का गहरा प्रभाव है। मराठी हिंदी के साथ ही यहां संस्कृत नाटकों की परंपरा रही है। कालिदास अकादमी ने संस्कृत नाटकों के पुनरुत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यहां कालिदास नाट्य समारोह में संस्कृत नाटकों का मंचन होता था। बाद में इसमें हिंदी नाटक भी होने लगे। आज उज्जैन में हिंदी से ज्यादा मराठी नाटक होते हैं।

70 और 80 के दशक में देशभर में चल रही आधुनिक नाटकों की बयार से उज्जैन भी अछूता नहीं रहा था। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षित राजेंद्र गुप्ता, बृजमोहन शाह, एम के रैना और के एम पणिकर इत्यादि ने यहां के युवाओं को परिचय आधुनिक रंगमंच से कराया। लगातार होने वाले नाटकों ने उस दौर में हिंदी नाटकों के लिए यहां एक अच्छा खासा दर्शक वर्ग तैयार कर दिया था। जो टिकट खरीद कर नाटक देखते थे। आज भी मुंबई व पुणे से मराठी थियेटर ग्रुप अपने नाटक लेकर उज्जैन आते हैं।

इन से जुड़ा एक दिलचस्प प्रसंग मुझे याद आ रहा है। राजेंद्र गुप्ता ,सुधीर कुलकर्णी ,कमल चोपड़ा ,आदि ने मोलियर के नाटक ‘कंजूस’ को उज्जैन में पुनर्जीवित किया। नौकर नौकरानी के किरदार के लिए उन्होंने उज्जैन के ही संजीव दिक्षित व सुशीला धर्मदासानी का चयन किया। उज्जैन के बाद हमारी संस्था ने इसे भोपाल में भी बुलाया था। शुरू में दो प्रदर्शन की बात थी लेकिन नाटक इतना अच्छा बन पड़ा था कि रविंद्र भवन में इसके 10-12 हाउसफुल शो हुए। ऐसे ही एक शो में एक दिन सुशीला की तबीयत खराब हो गयी । बीच शो में उसे उल्टियां हो गई ।सुधीर भाई ने स्थिति संभालने के लिए एक संवाद इंप्रोवाइज किया और सुशीला से गंदगी साफ करने के लिए कहा। सुशीला ने झट से अपना दुपट्टा निकाला और सुधीर के उस संवाद का जवाब देते हुए साफ करने लगी। उसके जवाब से इस हास्य नाटक में एक और ठहाका लगा।

दरअसल, दर्शकों को यह नाटक का हिस्सा ही लगा। शो ख़त्म होने के बाद हम सुशीला को लेकर सीधे काटजू अस्पताल पहुंचे। वहां उसे ड्रिप लगी और दूसरे दिन दोपहर तक वह अस्पताल में ही रही।  शाम को वह बिना डिस्चार्ज हुए सीधे शो में पहुंच गई। ऐसी प्रतिभाशाली व समर्पित कलाकार का राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में दाख़िला न हो, ऐसा संभव नहीं था। 1981 में उसका चयन वहां हो गया। बाद में उसने रेपेट्री के कई नाटकों में काम किया फिर एनएसडीके ही बेहतरीन अभिनेता बसंत जोसलकर से विवाह के बाद वह गोआ चली गई।

ऐसे ही राष्ट्रीय ख्याति के गुनीजनों की संगत में कई महिला रंगकर्मियों की प्रतिभा परवान चढ़ी। इनमें प्रमुख हैं शीला व्यास, नलिनी गुप्ते, पद्मजा रघुवंशी, साधना जैन, नीलिमा सक्सेना, संध्या शर्मा कैथवास, स्वाति चौरे। इन तमाम वरिष्ठ रंगकर्मियों के साथ कुछ युवा अभिनेत्रियों ने भी काफ़ी नाम कमाया है, जैसे स्वाति राजूरकर, पंखुरी वक्त ,संगीता नाग, संगीता प्रजापत, श्वेता जैन और संगीता ख़ान इत्यादि।

महिलाओं पर केंद्रित लेख ही क्यों ? वाजिब सवाल है। मेरा मानना है कि विगत 50 वर्षों के रंगकर्म में महिला कलाकारों के योगदान को जिस प्रमुखता से रेखांकित किया जाना चाहिए था वह नहीं हुआ है। प्रसिद्धि के मामले में जितना आदर-सम्मान आधी आबादी को मिलना चाहिए था, नहीं मिला है। यही कारण है कि उपेक्षा की शिकार अनेक महिला कलाकारों ने समय से पहले ही रंगमंच को अलविदा कह दिया। गॉसिप के माध्यम से चरित्र हनन रंगमंच को छोड़ने की एक और बड़ी वजह रही है। ज़रा से उन्मुक्त अभिनय पर लोग चटखारे लेकर घोषित करने लगते थे। हालाँकि इस मानसिकता मे अब बहुत सुधार हो रहा है।

यूं तो हर कला माध्यम समर्पण व परिश्रम की मांग करता है ,लेकिन नाटक में यह मांग कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती है। अन्य विधाओं में कलाकार अपनी सुविधानुसार समय का चुनाव कर सकता है, लेकिन नाटक एक सामूहिक कला है इसलिए उसे सह कलाकारों के साथ तालमेल मिलाकर चलना पड़ता है। बच्चों का होम वर्क कराना हो या या माता-पिता /सास ससुर की तीमारदारी करनी हो ,उसे रिहर्सल के साथ एडजस्ट करना पड़ता है। यदि महिला नौकरी पेशा हो तो यह ज़िम्मेदारी तीन गुना बढ़ जाती है।

बीमार बच्चे की चिंता को दबाते हुए या कभी-कभी माहवारी की पीड़ा को सहते हुए, चेहरे पर चरित्रानुकूल भाव लाना बहुत ही मुश्किल काम है। इसके लिए हम उनकी जितनी प्रशंसा कर सकते हैं हमें करना चाहिए। हमें उनके अच्छे कार्य का भरपूर प्रचार प्रसार करना चाहिए। हम इतना तो कर ही सकते हैं कि नाटक के बाद हम उनसे ऑटोग्राफ़ ले लें। इससे उन्हें और भी बेहतर काम करने की ऊर्जा मिलेगी। यह लेख उन तमाम महिला कलाकारों को समर्पित है जिन्होंने अनेकानेक कठिनाइयों से जूझते हुए रंगमंच की निस्वार्थ सेवा की और आज भी कर रही हैं।

लेखक वरिष्ठ रंगकर्मी हैं।

© मीडियाटिक

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